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५२० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र०८
जब ये शिवभूति मोक्ष गये हैं और मोक्ष बिना केवलज्ञान (सर्वज्ञता ) की उत्पत्ति के नहीं बनता, तब वे मात्र निर्मलज्ञानी न कहे जाकर सर्वज्ञ ही कहे जायेंगे और यही भावपाहुड की गाथा ५३ में 'केवलणाणी' पद से श्री कुन्दकुन्द को विवक्षित है। इसलिये स्थविरावली के शिवभूति तथा 'आराधना' के शिवार्य के साथ इनका एक व्यक्तित्व घटित नहीं हो सकता। वे दोनों न तो बीजबुद्धि थे और न मोक्ष ही गये हैं।
३. भावपाहुड की ५१ वीं गाथा में जिन शिवकुमार का उल्लेख है, उन्हें इसी गाथा में युवतिजन से वेष्टित, विशुद्धमति और भावश्रमण लिखा है, द्रव्यश्रमण नहीं, तथा 'परीतसंसारी' हुआ बतलाया है, और यह उन शिवकुमार का प्रसिद्ध पौराणिक अथवा ऐतिहासिक उल्लेख है, जो अन्तिम केवली श्री जम्बूस्वामी के पूर्व (तीसरे) भव के विदेहक्षेत्रस्थित महापद्म चक्रवर्ती के पुत्र थे, सागरचन्द्र मुनीन्द्र से अपने पूर्वभव श्रवण कर विरक्त हो गये थे और मुनि होते-होते पत्नियों के तीव्र अनुरोधवश घर में इस आश्वासन को पाकर रहे थे कि वे घर में रहते यथेप्सितरूप से उग्रतप तथा व्रतादिक का अनुष्ठान कर सकेंगे। चुनांचे मुनिवेष को न धारण करते हुए भी वे घर में भावापेक्षा मुनि के समान रहते थे, अपनी अनेक स्त्रियों से घिरे रह कर भी कमलपत्र की तरह निर्लिप्त, निर्विकार और अकामी रहकर पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करते थे, जैसा कि जम्बूस्वामीचरित्र और उत्तरपुराण के निम्न वाक्यों से प्रकट है
१५९ ॥
एवमस्तु करिष्येऽहं यथा तात! मनीषितम् ॥ कुमारस्तद्दिनान्नूनं ब्रह्मचार्येकवस्त्रोऽपि
सर्वसङ्गपराङ् मुखः । मुनिवत्तिष्ठते गृहे ॥
अकामी कामिनां मध्ये स्थितो वारिजपत्रवत् । दिव्यस्त्रीसन्निधौ स्थित्वा सदाऽविकृतचेतसा ।
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तृणाय
चरन्निव सन्यस्य जीवितप्रान्ते कल्पे
मन्यमानस्तास्तपो द्वादशवत्सरान् ॥ ७६/२०७॥ निशातासिधारायां
सम्प्रवर्तयन् ।
ब्रह्येन्द्रनामनि ॥ ७६/२०८ ॥ उ.प.।
१६०॥
१६० ॥ जम्बू. च. ।
अतः इन शिवकुमार को 'आराधना' के कर्त्ता शिवार्य मान लेना भूल से खाली नहीं है। और यह कल्पना तो बड़ी ही विचित्र जान पड़ती है कि शिवार्य ने चूँकि स्त्रीजनों और विषयों के विष से बच निकलने का उपदेश दिया है, इसलिये श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने उपचार से उन्हीं को युवतिजनों से वेष्टित, विशुद्धमति मान लिया होगा और शिवकुमार नाम से उल्लिखित कर दिया होगा ! परन्तु गाथा में शिवकुमार को
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