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________________ अ०१० / प्र०८ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ५१९ थे और न किसी तरह एक व्यक्ति सिद्ध ही होते हैं, जैसा कि निम्न प्रमाणों से प्रकट है १. भावपाहुड की ५३ वीं गाथा में जिन शिवभूति का उल्लेख है, वे केवलज्ञानी थे, जैसा कि उस गाथा के 'केवलणाणी फुडं जाओ' इन शब्दों से स्पष्ट है। स्थविरावली के शिवभूति और भगवती - आराधना के शिवार्य दोनों ही केवलज्ञानी न होकर छद्मस्थ थे, जम्बूस्वामी के बाद कोई केवलज्ञानी हुआ भी नहीं । भगवती - आराधना के कर्ता शिवार्य स्वयं गाथा नं० २१६७ में अपने को छद्मस्थ लिखते हैं और प्रवचन के विरुद्ध यदि कुछ निबद्ध हो गया हो, तो गीतार्थों से उसके संशोधन की प्रार्थना भी करते हैं। यथा छदुमत्थदाए एत्थ दु जं बद्धं होज्ज पवयणविरुद्धं । सोधें सुगीदत्था पवयणवच्छलदाए दु॥ २१६७॥ अतः ये तीनों एक व्यक्ति नहीं हो सकते । २. केवलज्ञानी को सर्वज्ञ न मानकर मात्र निर्मलज्ञानी मानने से भी काम नहीं चल सकता, क्योंकि भावपाहुड़ की उक्त गाथा ५३ में तुसमासं घोसंतो पदों के द्वारा शिवभूति को बीजबुद्धि सूचित किया है और जो बीजबुद्धि होते हैं, वे एक पद के आधार पर सकलश्रुत को विचारकर उसे ग्रहण करते हैं३०१ तथा मोक्ष जाते हैं। चुनांचे आचार्य वीरसेन ने अपनी धवलाटीका में, 'वेदना' अपर नाम 'कम्मपयडि - पाहुड' के चौथे 'कम्म- अनुयोगद्वार' का वर्णन करते हुए, ध्यान-विषयक जो शंका-समाधान दिया है उसमें स्पष्टरूप से शिवभूति को बीजबुद्धि, ध्यान का पात्र और मोक्षगामी सूचित किया है, जैसा कि उसके निम्न अंश से प्रकट है ` “जदि णवपयत्थविसयणाणेणेव ज्झाणस्स संभवो होइ, तो चोद्दसदसणवपुव्वधरे मोत्तूण अण्णेसिं पिज्झाणं किण्ण संपज्जदे ? चोद्दस-दस - णवपुव्वेहि विणा थोवेण वि गंथेण णवपयत्थावगमोवलंभादो ? ण थोवेण गंथेण णिस्सेसमवगंतुं बीजबुद्धिमुणिणो मोत्तूण अण्णेसिमुवायाभावादो। जीवाजीवपुण्णपावआसवसंवरणिज्जराबंधमोक्खेहि वहि पत्थे वदिरित्तमण्णं ण किं पि अत्थि, अणुवलंभादो । तम्हा ण थोवेण सुदेण एदे अवगंतुं सक्किज्जंते, विरोहादो। ण च दव्वसुदेण एत्थ अहियारो, पोग्गलवियारस्स जडस्स णाणोवलिंगभूदस्स सुदत्तविरोहादो । थोवदव्वसुदेण अवगयासेसणवपयत्थाणं सिवभूदिआदिबीजबुद्धीणं ज्झाणाभावेण मोक्खाभावप्पसंगादो ।" (धवला / ष.ख./पु.१३ / ५,४, २६/पृ. ६४-६५)। ३०१. देखिए, तिलोयपण्णत्ती ४ / ९७८-८६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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