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________________ ५१८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०८ श्वेताम्बर-पट्टावलियों में वीरनिर्वाण से ६०९ वर्ष पश्चात् दिगम्बर-सम्प्रदाय की उत्पत्ति का उल्लेख किया गया है।" "श्वेताम्बरों द्वारा सुरक्षित आचार्यों की पट्टावलियों में कल्पसूत्र-स्थविरावली सबसे प्राचीन समझी जाती है। इससे हमें फग्गुमित्त के उत्तराधिकारी धनगिरि के पश्चात् शिवभूति का उल्लेख मिलता है। ये ही शिवभूति मूलभाष्य में उल्लिखित शिवभूति से अभिन्न प्रतीत होते हैं।" "कुन्दकुन्दाचार्य ने अपने भावपाहुड की गाथा ५३ में शिवभूति का उल्लेख बड़े सम्मान से किया है और कहा है कि वे महानुभाव तुष-माष की घोषणा करते हुए भावविशुद्ध होकर केवलज्ञानी हुए। प्रसंग पर ध्यान देने से यहाँ ऐसे ही मुनि से तात्पर्य प्रतीत होता है, जो द्रव्यलिङ्गी न होकर केवल भावलिंगी मुनि थे। ये शिवभूति अन्य कोई नहीं, वे ही स्थविरावली के शिवभूति और आराधना के कर्ता शिवार्य ही होना चाहिये।" "भावपाहुड की गाथा ५१ में शिवकुमार नामक भाव-श्रमण का उल्लेख है, जो युवतिजन से वेष्टित होते हुए भी विशुद्धमति रह, संसार से पार उतर गये। इसका जब हम भगवती-आराधना की ११०८ से १११६ तक की गाथाओं से मिलान करते हैं, जहाँ स्त्रियों और भोग-विलास में रहकर भी उनके विष से बच निकलने का सुन्दर उपदेश दिया गया है, तो हमें यह भी सन्देह होने लगता है कि यहाँ भी कुन्दकुन्द का अभिप्राय इन्हीं शिवार्य से हो, तो आश्चर्य नहीं। उनके उपदेश का उपचार से उनमें सद्भाव मान लेना असम्भव नहीं है।" (प्रथम लेख : प्रो. ही.ला. जै.)। "मैंने अपने 'शिवभूति और शिवार्य' शीर्षक लेख में मूलभाष्य में उल्लिखित बोटिक-संघ के संस्थापक शिवभूति को एक ओर कल्पसूत्र-स्थविरावली के आर्य शिवभूति और दूसरी ओर दिगम्बर ग्रन्थ 'आराधना' के कर्ता शिवार्य से अभिन्न सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, जिससे उक्त तीनों नामों का एक ही व्यक्ति से अभिप्राय पाया जाता है, जो महावीर के निर्वाण से ६०९ वर्ष पश्चात् प्रसिद्धि में आये। मूलभाष्य की जिन गाथाओं पर से मैंने अपना अन्वेषण प्रारम्भ किया था, उनमें की एक गाथा में शिवभूति की परम्परा में 'कोडिन्न-कुट्टवीर' का उल्लेख आया है। अतः प्रस्तुत लेख का विषय शिवभूति अपर नाम शिवार्य के उत्तराधिकारियों की खोज करना है।" (द्वितीय लेख : प्रो. ही. ला. जै.)। ___ अब मैं अपने पाठकों पर यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि प्रो० साहब ने जिन दो शिवभूतियों शिवार्य और शिवकुमार को एक व्यक्ति सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, वह बहुत ही सदोष तथा आपत्ति के योग्य है। ये चारों एक व्यक्ति नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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