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अ०१०/प्र०८
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ५१७ जी तो दिगम्बर थे, उनके बारे में नि:संकोच उत्तर नहीं दिया जा सकता। पर लगता है कि उन्होंने अज्ञात कारणों से अपने श्वेताम्बर मित्रों को तुष्ट करने के लिए ऐसा किया है। यदि यह माना जाय कि दोनों सम्प्रदायों में एकत्व स्थापित करने के लिए ऐसा किया होगा, तो यह अत्यन्त भोलापन होगा, क्योंकि किसी सम्प्रदाय को अपने सिद्धान्तों की बलि देकर दूसरे के साथ समझौते के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता
और उसका नतीजा भी प्रोफेसर सा० को दिगम्बर विद्वानों के घोर विरोध के रूप में तुरन्त दृष्टिगोचर हो गया।
अब प्रो० हीरालाल जी के पूर्वोक्त दो लेखों में व्यक्त मान्यताओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन करनेवाले तत्कालीन मूर्धन्य दिगम्बर विद्वानों के दो लेख यथावत् उद्धृत किये जा रहे हैं। २.९. प्रथम लेख
शिवभूति शिवार्य और शिवकुमार ३००
लेखक : पं० परमानंद जी जैन शास्त्री, सरसावा प्रो० हीरालाल जी जैन, एम० ए० (अमरावती) ने हाल में 'शिवभूति और शिवार्य' नाम का एक लेख प्रकाशित किया है और उससे यह सिद्ध करने का यत्न किया है कि आवश्यक-मूलभाष्य और श्वे० स्थविरावली में बोटिकसंघ (दिगम्बर जैन सम्प्रदाय) के संस्थापक जिन 'शिवभूति' का उल्लेख है, वे कुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत भावपाहुड की ५३वी गाथा में उल्लिखित 'शिवभूति', भगवती-आराधना के कर्ता 'शिवार्य' और उक्त भावपाहुड की ५१ वी गाथा में वर्णित 'शिवकुमार' से भिन्न नहीं हैं, चारों एक ही व्यक्ति हैं अथवा होने चाहिए। और इस एकता को मानकर अथवा इसके आधार पर ही आप 'जैन इतिहास का एक विलुप्त अध्याय' नाम का वह लेख लिखने में प्रवत्त हए हैं. जिसे आपने अखिल भारतवर्षीय प्राच्य सम्मेलन के १२वें अधिवेशन में बनारस में अंग्रेजी भाषा में पढ़ा था, जो बाद को हिन्दी में अनुवादित करके प्रकाशित किया गया और जो आजकल जैन समाज में चर्चा का विषय बना हुआ है। इस विषय में प्रोफेसर साहब के दोनों लेखों के निम्न वाक्य ध्यान में रखने योग्य हैं
"आवश्यकमूलभाष्य की बहुधा उल्लिखित की जानेवाली कुछ गाथाओं के अनुसार बोटिकसंघ की स्थापना महावीर के निर्वाण से ६०९ वर्ष के पश्चात् रहवीरपुर में शिवभूति के नायकत्व में हुई। बोटिकों को बहुधा दिगम्बरों से अभिन्न माना जाता है, अतः
३००. 'अनेकान्त'। वर्ष ७ / किरण १-२ / अगस्त-सितम्बर, १९४४ ई. में प्रकाशित / पृ.१७-२० । ___ तथा 'दिगम्बर जैन सिद्धान्त दर्पण' (द्वितीय अंश) में पृ. ९५-९८ पर उद्धृत।
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