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अ०१०/प्र०८
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ५१५ के नाम का कुन्दकुन्द के पश्चात् उल्लिखित होना भी इस बात का प्रमाण है कि कुन्दकुन्द समन्तभद्र या भद्रबाहु-द्वितीय (दिगम्बर या श्वेताम्बर) के शिष्य नहीं थे, अपितु समन्तभद्र ही कुन्दकुन्द के परम्परा-शिष्य थे। २.६. शिवार्य कुन्दकुन्द से परवर्ती
भगवती-आराधना के अध्याय में सोदाहरण दर्शाया गया है कि शिवार्य ने कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से अनेक गाथाएँ ग्रहण की हैं, तथा उनकी शैली का भी अनुकरण किया है, इससे सिद्ध है कि शिवार्य कुन्दकुन्द के बाद हुए हैं। इस कारण भी कुन्दकुन्द को शिवार्य (शिवभूति) के शिष्य (भद्रबाहु-द्वितीय) का शिष्य कहना असंगत है। २.७. अनहोनी को होनी बनाने का अद्भुत कौशल
एक व्यक्ति एक ही समय में श्वेताम्बर (अचेलमुक्ति का निषेधक), बोटिक (प्रो० हीरालाल जी की मान्यतानुसार अपवादरूप से सचेलमुक्ति का समर्थक) तथा दिगम्बर (सचेलमुक्ति का निषेधक) तीनों नहीं हो सकता। एक व्यक्ति एक ही समय में छद्मस्थ और केवलज्ञानी दोनों नहीं हो सकता। और एक व्यक्ति ई० पू० प्रथम शताब्दी से लेकर पाँचवीं शताब्दी ई० तक जीवित नहीं रह सकता। किन्तु प्रो० हीरालाल जी ने इन अनहोनियों को होनी बनाने का अद्भुत कौशल दिखलाया है। कल्पसूत्र की स्थविरावली में उल्लिखित जिन शिवभूति को उन्होंने प्रथम शती ई० से पाँचवी शती ई० तक श्वेताम्बर माना है, उन्हीं को प्रथम शती ई० में बोटिक भी मान लिया है, और उन्हीं को उसी शती में दिगम्बर भी स्वीकार कर लिया है, क्योंकि दिगम्बर कुन्दकुन्द ने उनकी प्रशंसा की है। और आचार्य कुन्दकुन्द ने इन शिवभूति को केवलज्ञान प्राप्त करनेवाला बतलाया है (भा.पा./गा.५३), किन्तु स्थविरावली-निर्दिष्ट शिवभूति तथा भगवती-आराधना के कर्ता शिवभूति केवलज्ञानी नहीं थे। फिर भी प्रोफेसर सा० ने इन सबको एक ही व्यक्ति मान लिया है। इस प्रकार एक ही व्यक्ति को एक ही समय में छद्मस्थ और केवली दोनों बना दिया है। तथा दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी में प्रकाशित नन्दिसंघीय पट्टावली के अनुसार दिगम्बर-भद्रबाहु-द्वितीय ई० पू० ५३ में आचार्यपद पर आसीन हुए थे, जबकि श्वेताम्बर-भद्रबाहु-द्वितीय का अस्तित्वकाल पाँचवींछठी शताब्दी ई० है। इनको भी एक ही व्यक्ति मानकर एक मनुष्य को पंचमकाल में पाँच सौ वर्षों तक जीवित रहनेवाला सिद्ध कर दिया है। ऐसी घोर विसंगतियों से परिपूर्ण कपोलकल्पनाओं के द्वारा प्रोफेसर सा० ने कुन्दकुन्द को दिगम्बरमत का प्रवर्तक और द्वितीय शताब्दी ई० का सिद्ध करने की चेष्टा की है। अतः उनका मत सर्वथा अप्रामाणिक एवं अग्राह्य है।
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