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________________ ५१४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०८ चतुर्दशपूर्वधर श्रुतकेवली भद्रबाहु और वराहमिहिर के भाई नैमित्तिक भद्रबाहु के कथानक नामसाम्य के कारण एक-दूसरे से घुल-मिल गये और दूसरे भद्रबाहु की रचनाएँ भी प्रथम के नाम चढ़ा दी गईं। यही कारण रहा कि नैमित्तिक भद्रबाहु को भी प्राचीनगोत्रीय श्रुतकेवली चतुर्दश-पूर्वधर भद्रबाहु के साथ जोड़ दिया गया है और दोनों के जीवन की घटनाओं के इस घाल-मेल से अनेक अनुश्रुतियाँ प्रचलित हो गईं। इन्हीं अनुश्रुतियों के परिणामस्वरूप नियुक्ति के कर्ता के रूप में चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहु की अनुश्रुति प्रचलित हो गयी।" (डॉ. सा. म. जै. अभि. ग्रन्थ । पृ.४९)। इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि ईसा की दसवीं शताब्दी के बाद के श्वेताम्बराचार्यों ने नामसाम्य के कारण नियुक्तियों का कर्तृत्व अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ जोड़ दिया। अतः श्वेताम्बरसाहित्य में जहाँ-जहाँ नियुक्तिकार भद्रबाहु को श्रुतकेवली कहा गया है, वहाँ-वहाँ भद्रबाहु-प्रथम से ही अभिप्राय है। इस प्रकार श्वेताम्बरसाहित्य में भी 'श्रुतकेवली' शब्द का प्रयोग भद्रबाहु-प्रथम के साथ ही हुआ है, द्वितीय के साथ नहीं। फलस्वरूप श्रुतकेवली न होने के कारण द्वितीय-भद्रबाहु को कुन्दकुन्द का गुरु नहीं माना जा सकता। इसके अतिरिक्त प्रो० हीरालाल जी ने नियुक्तिकार भद्रबाहु-द्वितीय का अस्तित्वकाल, उन्हें आर्यवज्र का समकालीन मानते हुए, ईसा की प्रथम शताब्दी माना है, वह भी अप्रामाणिक है। श्वेताम्बरसाहित्य में वे प्रसिद्ध ज्योतिर्विद् वराहमिहिर के सहोदर माने गये हैं, जो विक्रम सं० ५६२ में विद्यमान थे। अतः उनका समय भी लगभग यही है। (जै.आ.सा. म. मी./ पृ.४३८)। इस कारण ईसा की छठी शती में हुए भद्रबाहुद्वितीय का प्रोफेसर सा० द्वारा ईसा की द्वितीय शताब्दी में उत्पन्न माने गये कुन्दकुन्द का गुरु होना असंभव है। तथा प्रोफेसर सा० ने नियुक्तिकार भद्रबाहु-द्वितीय और स्वामी समन्तभद्र को एक ही व्यक्ति मानते हुए उन्हें कुन्दकुन्द का गुरु बतलाया है, किन्तु दिगम्बर-परम्परा के सभी शिलालेखों में समन्तभद्र का नाम न केवल कुन्दकुन्द के बाद, अपितु उनसे भी परवर्ती उमास्वाति के बाद आया है। (देखिए, श्रवणबेल्गोल-शिलालेख क्र. ४० (६४) एवं १०८ (२५८)। इससे प्रोफेसर सा० को यह सिद्ध करना पुनः कठिन हो गया कि भद्रबाहु-द्वितीय या समन्तभद्र कुन्दकुन्द के गुरु थे। इसलिए उन्होंने इस तथ्य को यह कहकर झुठलाने का प्रयास किया है कि उत्तरवर्ती लेखकों ने स्वार्थवश समन्तभद्र का नाम कुन्दकुन्द के बाद रख दिया है। किन्तु वह स्वार्थ क्या था तथा उस स्वार्थ के ही कारण ऐसा किया गया है, इसे सिद्ध करनेवाला कोई प्रमाण प्रोफेसर सा० ने प्रस्तुत नहीं किया। इससे स्पष्ट है कि यह उनकी अपनी कपोलकल्पना है। कपोलकल्पनाओं से इतिहास नहीं बदला जा सकता। अतः शिलालेखों में समन्तभद्र Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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