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अ०१० / प्र०८
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ५०९ एवं वनवासीसंघ के प्रस्थापक सामन्तभद्र तथा आप्तमीमांसा के कर्ता समन्तभद्र से अभिन्न
हैं।
३. कुन्दकुन्दाचार्य ने संघ में कुछ विप्लवकारी सुधार उपस्थित किये, जो एक दलविशेष को ग्राह्य नहीं थे। उनके नायक उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र की रचना समझौते के लिये की, किन्तु समझौता हो नहीं सका । अत एव उमास्वाति कुसुमपुर के संघ में जा मिले और वहाँ उन्होंने तत्त्वार्थाधिगमभाष्य रचा।
४. कुन्दकुन्दाचार्य के नियमों के कारण जिन्हें संघ छोड़ना पड़ा, या जो संघ से निकाले गये, उन्हीं ने अपना एक पृथक् संघ बनाया जो यापनीयसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
५. कुन्दकुन्दाचार्य ने अपने मतों के विरोध में जानेवाली समस्त प्राचीन मान्यताओं को तथा तत्सम्बन्धी साहित्य को भी सर्वथा दबा देने का प्रयत्न किया और अपने संघ को मूलसंघ के नाम से प्रसिद्ध किया ।
६. शिलालेखों व पट्टावलियों में कुन्दकुन्द के पश्चात् जिन समन्तभद्र का उल्लेख पाया जाता है, वे आप्तमीमांसा के कर्ता व शिवार्य के प्रसिद्ध शिष्य से पृथक् हैं। वे रत्नकरण्ड श्रावकाचार के कर्ता तथा रत्नमाला के कर्ता शिवकोटि के गुरु हो सकते हैं।
७. शिवार्य ने अपने संघ की रचना वीर निर्वाण से ६०९ वर्ष पश्चात् की थी। उसके पश्चात् अनुमानतः २० वर्ष उनके, और २० वर्ष उनके उत्तराधिकारी समन्तभद्र या भद्रबाहु - द्वितीय के और जोड़ देने से कुन्दकुन्दाचार्य और उमास्वाति का समय वीरनिर्वाण से लगभग ६५० वर्ष पश्चात् सिद्ध होता है । " ( लेख समाप्त) ।
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निरसन
इन दोनों लेखों में कल्पित किये गये मतों की कपोलकल्पितता का उद्घाटन पं० परमानन्द जी शास्त्री और डॉ० दरबारीलाल जी कोठिया अपने लेखों में किया है। उन्हें उद्धृत करने के पूर्व उपर्युक्त मतों की कपोलकल्पितता पर मैं भी कुछ प्रकाश डालना चाहता हूँ।
२.१. कल्पसूत्र के शिवभूति और बोटिक शिवभूति में एकत्व असंभव
प्रो० हीरालाल जी जैन ने बोटिकमत के प्रवर्तक शिवभूति,
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कल्पसूत्र की स्थविरावली में निर्दिष्ट आर्य शिवभूति, भगवती - अ - आराधना के कर्त्ता शिवार्य तथा कुन्दकुन्द
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