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________________ ५०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०८ पूर्व के समस्त इतिहास को अंधेरे में डालने का खास तौर से प्रयत्न किया गया। दूसरी एक बात यह भी है कि कुन्दकुन्दाचार्य से पश्चात् भी एक नहीं, अनेक समन्तभद्र हुए हैं।२९२ रत्नकरण्ड श्रावकाचार को उक्त समन्तभद्र-प्रथम की ही रचना सिद्ध करने के लिये जो कुछ प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं,२९३ उन सबके होते हुए भी मेरा अब यह मत दृढ़ हो गया है कि यह उन्हीं ग्रन्थकार की रचना कदापि नहीं हो सकती, जिन्होंने 'आप्तमीमांसा' लिखी थी, क्योंकि उसमें दोष का२९४ जो स्वरूप समझाया गया है, वह आप्तमीमांसाकार के अभिप्रायानुसार हो ही नहीं सकता।९५ मैं समझता हूँ कि रत्नकरण्ड श्रावकाचार कुन्दकुन्दाचार्य के उपदेशों के पश्चात् उन्हीं के समर्थन में लिखा गया है। इस ग्रन्थ का कर्ता उस 'रत्नमाला' के कर्ता शिवकोटि का गुरु भी हो सकता है, जो 'आराधना' के कर्ता शिवभूति या शिवार्य की रचना कदापि नहीं हो सकती।२९६ इन पीछे के समन्तभद्र के साथ जो स्वामिपद भी जोड़ दिया गया है और पूर्ववर्ती समन्तभद्र के सम्बन्ध की अन्य घटनाओं का सम्पर्क भी बतलाया गया है, वह या तो भ्रान्ति के कारण हो सकता है या जानबूझ कर किया गया हो, तो भी आश्चर्य नहीं। इस लेख में खोजपूर्वक जो निष्कर्ष निकाले गये हैं, वे इस प्रकार हैं १. आवश्यकमूलभाष्य के अनुसार जिन शिवभूति ने बोडिकसंघ की स्थापना की थी, वे स्थविरावली में उल्लिखित आर्य शिवभूति, तथा भगवती-आराधना के कर्ता शिवार्य एवं उमास्वाति के गुरु शिवश्री से अभिन्न हैं। २. स्थविरावली में आर्य शिवभूति के जो भद्र नामक शिष्य और उत्तराधिकारी का उल्लेख है, वे नियुक्तियों के कर्ता भद्रबाहु, द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष की भविष्यवाणी के कर्ता व दक्षिणापथ को विहार करनेवाले भद्रबाहु तथा कुन्दकुन्दाचार्य के गुरु भद्रबाहु २९२. पं. जुगलकिशोर मुख्तार जी ने कोई छह समन्तभद्र नाम के आचार्यों का परिचय कराया है, जिसके लिये देखिये 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' की भूमिका / पृ.५-९। २९३. देखिये, उपर्युक्त ग्रन्थ। २९४. क्षुत्पिपासा-जरातङ्क-जन्मान्तक-भयस्मयाः। न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते॥ ६॥ रत्नकरण्ड श्रावकाचार / १। २९५. देखिये, आप्तमीमांसा श्लोक ४ और ६ पर विद्यानन्द की अष्टसहस्री टीका। आप्तमीमांसा का श्लोक ९३ भी देखिये, जहाँ वीतराग मुनि में सुख-दुख की वेदना स्वीकार की गई है और उसी बात पर वहाँ की युक्ति निर्भर की गई है पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुखात्पापं च सुखतो यदि। वीतरागो मुनिर्विद्वांस्ताभ्यां युज्यान्निमित्ततः॥ २९६. रत्नमाला / सिद्धांतसारादि-संग्रह में संगृहीत (मा. दि.जैन ग्रन्थ २१, भूमिका)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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