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अ०१०/प्र०८
आचार्य कुन्दकुन्द का समय /५०७ इन्हीं कटु अनुभवों की स्मृति लेकर उमास्वाति संभवतः दीर्घयात्रा करने योग्य अपने युवावयस्क साथियों को लेकर उत्तर को चले गये, ताकि वे वहाँ के संघ से सम्पर्क स्थापित कर सकें। इस प्रकार उमास्वाति कुसुमपुर पहुंचे और वहाँ ही उन्होंने वे सब बातें स्पष्ट कर दीं, जिन्हें सूत्रों में पूर्वोक्त अनिवार्य संकट को टालने की दृष्टि से अस्पष्ट रखा था।
इस प्रकार अपने समस्त प्रतिपक्षियों को दूर कर देने के पश्चात् कुन्दकुन्द ने अपूर्व परिपूर्णता के साथ अपने संघ का पुनर्निमाण प्रारम्भ कर दिया। अपनी मान्यताओं के जरा भी विरुद्ध जानेवाली व पुरानी व्यवस्था का कुछ भी स्मरण करानेवाली समस्त बातों को उन्होंने कठोरता के साथ दबा दिया। उन्होंने स्वयं अपना पूर्व नाम पद्मनन्दी२८९ बदल दिया। क्योंकि स्वयं वह नाम नन्दिसंघ का स्मरण कराता था। सम्भवतः उन्होंने समस्त पूर्व आगमों के अध्ययन का भी निषेध कर दिया और सच्चे आगम के सर्वथा लोप हो जाने की मान्यता को जन्म दिया और बहुत से पाहुड स्वयं लिख-लिखकर उस कमी को पूरा किया।९°तब से उनके लिखे हुए ये पाहुड़ ही समस्त धार्मिक एवं दार्शनिक बातों पर अद्वितीय प्रमाण ठहराये गये। उन्होंने अपने संघ का नाम मूलसंघ रखा, क्योंकि उनका यह मत था कि जिस सिद्धान्त व आचार का उन्होंने विधान किया है, वही ठीक अन्तिम तीर्थङ्कर की व्यवस्थानुसार मौलिक सिद्ध होता है।९१ यह भी संभव है कि यह नाम उन्हें इस कारण और भी सूझ पड़ा, क्योंकि वह उन वाचकाचार्य का भी नाम या उपनाम था, जिन्होंने उमास्वाति को पढ़ाया था, और संभवतः स्वयं उन्हें भी पढ़ाया होगा। अत एव अप्रत्यक्षरूप से वे उसकी स्मृति भी स्थिर करना चाहते होंगे।
समन्तभद्र को कुन्दकुन्दाचार्य का गुरु मानने में एक कठिनाई अब भी शेष रह जाती है और वह यह है कि शिलालेखों और पट्टावलियों में बराबर समन्तभद्र का नाम कुन्दकुन्द के पश्चात् उल्लिखित किया जाता है, पूर्व नहीं। पीछे के लेखकों की इस प्रवृत्ति का कारण मेरी समझ में यह आता है कि उनका कुन्दकुन्द को इस युग के समस्त आचार्यों में प्रथम और प्रधान बतलाने में स्वार्थ था, अतएव २८९. तस्यान्वये भूविदिते बभूव यः पद्मनन्दिप्रथमाभिधानः।
श्रीकोण्डकुन्दादिमुनीश्वराख्यस्सत्संयमादुद्गतचारणर्द्धिः॥ ६॥ श्रवणबेल्गोला-शिलालेख क्र.
४० (६४)/ जैन शिलालेख संग्रह । माणिकचन्द्र / भा.१।। २९०. "परम्परानुसार कुन्दकुन्द ने चौरासी पाहुड़ लिखे। इनमें से कोई बारह अभी उपलब्ध हैं।
देखिये डॉ० उपाध्ये-कृत प्रवचनसार की भूमिका / पृष्ठ २४ आदि।" लेखक। २९१. हिंसारहिये धम्मे अट्ठारहदोसवज्जिए देवे।
णिग्गंथे पव्वयणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं ॥ ९० ॥ मोक्खपाहुड।
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