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५०६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र०८
कुन्दकुन्द ने यह उपदेश दिया कि केवलज्ञानी समस्त सुख और दुख की वेदना के परे होता है, २८३ ऐसा समझना चाहिये। वे केवल इन विचारों को प्रगट करने मात्र से सन्तुष्ट नहीं हुए। जान पड़ता है उन्होंने यह प्रयत्न प्रारम्भ कर दिया कि संघ का प्रत्येक सदस्य उनकी मान्यताओं के अनुसार विश्वास व आचरण करे। जो वैसा नहीं कर सके या करना नहीं चाहते थे, वे संघ से बहिष्कारयोग्य ठहराये गये। इससे संघ में बड़ी उग्र परिस्थिति निर्माण हुई प्रतीत होती है, विशेषतः संघ के उन सदस्यों में जो शिवार्य के अपवादमार्ग में आते थे और प्राचीन आगम को भूलना और छोड़ना नहीं चाहते थे। संभवतः उमास्वाति ने इस संघभाग का नायकत्व ग्रहण किया। इसी तीव्र परिस्थिति में, जब कि उभय पक्ष में विचारधारा तेजी से चल रही थी, उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र की रचना की, जिसमें उन्होंने केवली में भूख और प्यास की वेदना को सैद्धान्तिक रूप से प्रतिपादित किया२८४ किन्तु मुनियों के वस्त्र धारण का या स्त्रियों की मुक्ति का कोई विषय व्यक्त रूप से उपस्थित नहीं किया, यद्यपि इसके लिये निर्ग्रन्थों के भेदों में २८५ तथा मुक्तात्माओं के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न दृष्टियों से चिंतन में २८६ गुंजाइश रक्खी। इस ग्रन्थ को उमास्वाति ने सम्भवतः समझौते के लिये प्रस्तुत किया । किन्तु कुन्दकुन्द और उनके सहयोगियों ने संभवतः उसी प्रयोजन से एक संघ की बैठक करके उसे अस्वीकार कर दिया । २८७ इसका परिणाम यह हुआ कि उन परिवर्तनों के विरोधियों को संघ छोड़ना पड़ा, या यों कहिये, वे संघ से निकाल दिये गये, जिससे उन्होंने अपना पृथक् संघ स्थापित किया, जो यापनीयसंघ २८८ के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
२८३.
. सोक्खं वा पुण दुक्खं
केवलणाणिस्स णत्थि देहगदं ।
जम्हा अदिंदियत्तं जादं तम्हा दु तं णेयं ॥ १/२० ॥ प्रवचनसार । जरवाहिदुक्खरहियं आहारणिहारवज्जियं विमलं ।
सिंहाण खेल सेओ णत्थि दुगंछा य दोसो य॥ ३७॥ बोधपाहुड।
२८४. देखिए तत्त्वार्थसूत्र / ९ / ८-१० ।
२८५. देखिए, वही / ९ / ४६-४७ ।
२८६. देखिए, वही / १० / ९ |
२८७. " ऐसा जान पड़ता है कि कुन्दकुन्द ने उक्त विषय संघ की सम्मति के लिये जिस प्रकार उपस्थित किया, वह प्रवचनसार की गाथा १/६२ में सुरक्षित हैणो सद्दहंति सोक्खं सुहेसु परमं ति विगदघादीणं । सुणिदूण ते अभव्वा भव्वा वा तं पडिच्छंति ॥
१/६२ ॥ " लेखक २८८. “यापनीयसंघ की जानकारी के लिये देखिये डॉ० उपाध्ये का लेख - 'Yapaniya Sangha, a Jaina Sect' (Bombay University Journal, May 1933) और पं० नाथूराम प्रेमी का 'यापनीय साहित्य की खोज' (जैन साहित्य और इतिहास) । यापनीय संघ का किस प्रकार मूलसंघ में अन्तर्भाव कर लिया गया और उसका साहित्य मूलसंघ में किस प्रकार स्वीकार्य ठहराया गया, इस विषय पर मैं एक अलग लेख लिख रहा हूँ।" लेखक ।
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