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________________ अ०१०/प्र०८ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ५०५ २. यद्यपि उमास्वाति का जन्म न्यग्रोधिका में हुआ था, किन्तु वे विहार कर कुसुमपुर (उत्तर में पाटलीपुत्र) पहुँचे। ३. कुसुमपुर में उन्होंने तत्त्वार्थाधिगमभाष्य रचा। ४. यह भाष्य उन्होंने जिस ग्रन्थ पर रचा, वह उन्होंने उससे पूर्व दुःखार्त और दुरागम से लोगों की मति भ्रान्त हुई देखकर गुरुक्रमागत अर्हद्वचन को अच्छी तरह सोच-समझ कर संगृहीत किया था। ये वक्तव्य तब तक पूर्णतः समझ में नहीं आते, जब तक कि उस समय में उपस्थित हुई संघ की समस्त परिस्थिति पर विचार न किया जाय। शिवार्य के उत्तराधिकारी हुए भद्रबाहु-द्वितीय और उनके पश्चात् हुए कुन्दकुन्दाचार्य। शिवार्य के द्वितीय शिष्य घोषनंदि के शिष्य थे उमास्वाति, जो स्पष्टतः कुन्दकुन्द के समसामयिक प्रतियोगी थे। कुन्दकुन्द ने संघ के शासन में तथा मुनियों के आचार में कुछ गम्भीर परिवर्तन उपस्थित किये, जब कि शिवार्य ने समस्त अर्जिकाओं और विशेष परिस्थिति में कुछ मुनियों को भी वस्त्र धारण करने की अनुमति दी थी।७९ तब कुन्दकुन्द ने उस व्यवस्था को अनियमित समझा और समस्त मुनियों को बिना किसी अपवाद के नाग्न्य आवश्यक ठहराया।२८० स्त्रियों के लिये तो स्पष्टतः यह नियम लगाया नहीं जा सकता था, अतः वे मुक्ति के अयोग्य ठहराई गईं और उनकी संघ में स्थिति केवल उम्मीदवारों के रूप में रखी गई।२८१ अपने गुरु आप्तमीमांसा के कर्ता के एक गूढार्थ कथन, जिसके अनुसार आप्त को दोष और आवरण से मुक्त होना चाहिये८२ का विस्तार करके २७९. "देखिये, भगवती आराधना, गाथा ७९-८३, व मेरा लेख 'शिवभूति और शिवार्य' फुटनोट २२८।" लेखक। २८०. वालग्गकोडिमत्तं परिगहगहणं ण होइ साहूणं । भुंजेइ पाणिपत्ते दिण्णण्णं इक्कठाणम्मि॥ १७॥ जस्स परिग्गहगहणं अप्पं बहुयं च हवइ लिंगस्स। सो गरिहउ जिणवयणे परिगहरहिओ णिरायारो॥ १९॥ णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो। णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे॥ २३॥ सुत्तपाहुड। २८१. जइ दंसणेण सुद्धा उत्ता मग्गेण सा वि संजुत्ता। घोरं चरिय चरित्तं इत्थीसु ण पावया भणिया॥ २५॥ सुत्तपाहुड। २८२. दोषावरणयोर्हानिर्निश्शेषास्त्यतिशायनात्। क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः॥ ४॥ स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते॥ ६॥ आप्तमीमांसा। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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