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________________ ५०४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०८ जरा, हम तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की प्रशस्ति२७७ पर तो ध्यान दें। यहाँ कहा गया है कि उसके कर्ता उमास्वाति शिवश्री के प्रशिष्य तथा घोषनन्दी शिष्य थे। इन दो आचार्यों में से अभी तक किसी का भी कोई खास पता नहीं चल सका। शिवश्री का शिवार्य के साथ सहज ही एकीकरण हो जाता है। श्री और आर्य तो सन्मानसूचक संज्ञायें हैं। उनको छोड़ दोनों में नाम एक ही है। इसके अतिरिक्त शिवश्री के शिष्य घोषनन्दी के नाम में जो नन्दि-नामांश पाया जाता है, वही शिवार्य के गुरुओं के नाम में भी विद्यमान है तथा वह नंदिसंघ के आचार्यों में सुप्रचलित रहा है, जब कि श्वेताम्बरसम्प्रदाय के प्राचीन नामों में तो उसका प्रायः सर्वथा ही अभाव पाया जाता है।२७८ प्रशस्ति से जो दूसरी बात जानी जाती है, वह यह है कि उमास्वाति का जन्म न्यग्रोधिका में हुआ था। चूँकि शिवार्य के संघ की स्थापना के स्थान रहवीरपुर को मैं अहमदनगर जिले का 'राहुरी' नामक स्थान अनुमान कर चुका हूँ, अत एव मैंने उसी प्रदेश में इस नाम की भी खोज की, जिसके फलस्वरूप उसी जिले में 'निघोज' नामक स्थान का पता चला, जो राहुरी से बहुत दूर भी नहीं है। यह निघोज उमास्वाति की जन्मभूमि न्यग्रोधिका हो सकता है। भाष्य की प्रशस्ति में निम्नलिखित बातें भी ध्यान देने योग्य हैं१. उमास्वाति के आगमशिक्षक वाचनाचार्य मूल थे। २७७. वाचकमुख्यस्य शिवश्रियः प्रकाशयशसः प्रशिष्येण। शिष्येण घोषनन्दिक्षमणस्यैकादशाङ्गविदः॥ १॥ वाचनया च महावाचकक्षमणमुण्डपादशिष्यस्य। शिष्येण वाचकाचार्यमूलानाम्नः प्रथितकीर्तेः॥ २॥ न्यग्रोधिकाप्रसूतेन विहरता पुरवरे कुसुमनाम्नि। कौभीषणिना स्वातितनयेन वात्सीसुतेनाय॑म् ॥ ३॥ अर्हद्वचनं सम्यग्गुरुक्रमेणागतं समुपधार्य। दुःखार्तं च दुरागमविहतमतिं लोकमवलोक्य॥ ४॥ इदमुच्चै गरवाचकेन सत्त्वानुकम्पया दृब्धम्। तत्त्वार्थाधिकमाख्यं स्पष्टमुमास्वातिना शास्त्रम्॥ ५॥ यस्तत्त्वाधिगमाख्यं ज्ञास्यति च करिष्यते च तत्रोक्तम्। सोऽव्याबाधसुखाख्यं प्राप्स्यत्यचिरेण परमार्थम् ॥ ६॥ इस प्रशस्ति पर पं० सुखलाल जी संघवी का वक्तव्य भी देखिये-तत्त्वार्थसूत्र की भूमिका । पृ. ४ आदि। २७८. "आराधना' में उल्लिखित शिवार्य के गुरुओं के नाम हैं : जिननन्दी , सर्वगुप्त और मित्रनन्दी, जिनके सम्बन्ध में देखिये मेरा लेख 'शिवभूति और शिवार्य।" लेखक। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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