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अ०१०/प्र०८
आचार्य कुन्दकुन्द का समय /५०३ पूर्ववर्ती भद्रबाहु-प्रथम से पृथक् होते हुए भी अनेक शिलालेखों में श्रुतज्ञानी कहे गये
हैं।२७२
यही बात तब और भी स्पष्ट हो जाती है, जब हम श्वेताम्बर-आगम की दश नियुक्तियों के कर्ता भद्रबाहु के सम्बन्ध में विचार करते हैं। ये नियुक्तियों के कर्ता भद्रबाहु भी श्रुतकेवली कहे गये हैं,२७३ किन्तु यह तो अब सिद्ध है कि ये भद्रबाहुप्रथम नहीं हो सकते, क्योंकि उन्होंने अपनी आवश्यकनियुक्ति में ऐसी घटनाओं और व्यक्तियों का उल्लेख किया है, जिनका समय महावीर से लगा कर निर्वाण के ६०९ वर्ष पश्चात् तक उन्होंने स्वयं बतलाया है।२७४ उन्होंने आर्य वज्र की भी बहुत प्रशंसा की है, जिनका समय वीरनिर्वाण ४९६ से लगाकर ५८४ तक पाया जाता है, एवं उन्हीं के समकालीन२७५ आर्यरक्षित का भी उल्लेख किया है। इन सब उल्लेखों पर से ऐसा अनुमान है कि उक्त नियुक्ति के कर्ता स्वयं वीर निर्वाण से ६०९ वर्ष पश्चात् हुए हैं और सम्भवतः आर्यवज्र से भी उनका संपर्क रहा है, जिनके विषय में उन्होंने कुछ व्यक्तिगत बातें भी बतलाई हैं एवं उन्हें श्रुत को दो खंडों में यानी कालिक
और दृष्टिवाद में विभाजित करनेवाला भी कहा है। ये दो भाग आर्यरक्षित द्वारा पुनः चार भागों में विभाजित किये गये थे।२७६ मेरे मतानुसार नियुतियों के कर्ता और कुन्दकुन्द के गुरु आप्तमीमांसा के कर्ता एवं वनवासीगच्छ के संस्थापक व चंद्रकुल के नायक तथा द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष की भविष्यवाणी करके दक्षिण की यात्रा करने वाले आचार्य सब एक ही व्यक्ति हैं, और वह व्यक्ति था शिवार्य का शिष्य।
शिवार्य के गौरव को बढ़ाने वाला इतना ही यश नहीं है। उनके मुकुट में एक और तेजस्वी मणि जड़ा हुआ मिलता है, जिसकी ओर अब हम दत्तचित्त होंगे।
२७२, देखिये, पादटिप्पणी क्र.२४८ । श्रवणबेलगोल लेख क्र. १०८ (२५८)/ पद्य ८-९ भी देखिये।
(जै.शि.सं./ मा.च. / भा.१)। २७३. येनैषा पिंडनियुक्तियुक्तिरम्या विनिर्मिता।
द्वादशांगविदे तस्मै नमः श्रीभद्रबाहवे॥ पिंडनियुक्ति / मलयगिरि-टीका। दसकप्पव्वहारा निजूढा जेण नवमपुव्वाओ।
वंदामि भद्दबाहुं तमपश्चिमसयलसुयनाणिं ॥ ऋषिमंडल सूत्र। २७४. चोद्दस सोलस वासा चोदसवीसुत्तरा य दुण्णिा सया।
अठ्ठावीसा य दुवे पंचेव सया य चोआला ॥ ७८२ ॥ पंच सया चुलसीया छच्चेव सया नवुत्तरा हुंति।
नाणुप्पत्तीए दुवे उप्पन्ना निव्वुए सेसा॥ ७८३॥ आवश्यकनियुक्ति। २७५. "श्रीवीरात् त्रयस्त्रिंशदधिक-पंचशत ५३३ वर्षे श्रीआर्यरक्षितसूरिणा श्रीभद्रगुप्ताचार्यो
निर्यामितः स्वर्गभाग।" तपागच्छ पट्टावली। २७६. आवश्यकनियुक्ति / गाथा ७६३-७७८ ।
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