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________________ ५०२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०८ से लगा हुआ आता है और सामन्तभद्र इन्हीं के पौत्र शिष्य थे। यही नहीं, वीरवंशावली२६८ के अनुसार वज्रस्वामी ने अपना चातुर्मास दक्षिण देश के तुंगिया नामक स्थान पर किया था, जो संभवतः तुंगभद्रा नदी के समीप था, जहाँ हमने समन्तभद्र के क्रौंचपुर या कांचीपुर की भी स्थिति निश्चित की है। यह स्थान श्रवणबेल्गोला के कटवप्र से भी बहुत दूर नहीं है, जहाँ लेखानुसार आचार्य प्रभाचन्द्र ने शरीरांत किया था। दूसरा महत्त्वपूर्ण संकेत इस शिलालेख से यह प्राप्त होता है कि भद्रबाहु की उपाधि 'स्वामी' थी, जो कि साहित्य में प्रायः एकान्ततः समन्तभद्र के लिये ही प्रयुक्त हुई है। यथार्थतः बड़े-बड़े लेखकों जैसे विद्यानन्द२६९ और वादिराजसूरि२७० ने तो उनका उल्लेख, नाम न देकर केवल उनकी इस 'स्वामी' उपाधि से ही किया है और यह वे तभी कर सकते थे, जब कि उन्हें विश्वास था कि उस उपाधि से उनके पाठक केवल समन्तभद्र को ही समझेंगे, अन्य किसी आचार्य को नहीं। इस प्रमाण को उपर्युक्त अन्य सब बातों के साथ मिलाने से यह प्रायः निस्सन्देहरूप से सिद्ध हो जाता है कि समन्तभद्र और भद्रबाहु एक ही व्यक्ति हैं। . इस प्रकार भद्र, सामन्तभद्र, समन्तभद्र और भद्रबाहु के एक ही व्यक्ति सिद्ध हो जाने से हम कुछ ऐसे निष्कर्षों पर पहुंचते हैं, जो हमें चकित कर देते हैं। इन निष्कर्षों में से एक तो यह है कि हमें कुन्दकुन्द को उन्हीं भद्रबाहु-द्वितीय के शिष्य स्वीकार करना पड़ता है, जो दिगम्बर-सम्प्रदाय के भीतर अन्य कोई नहीं, स्वयं आप्तमीमांसा के कर्ता समन्तभद्र ही हैं। कुन्दकुन्द ने अपने बोधपाहुड़ में स्पष्टतः अपने को भद्रबाहु का शिष्य२७१ कहा है, जो अन्य कोई नहीं, उक्त भद्रबाहु-द्वितीय ही हो सकते हैं। इस एकीकरण में केवल यह कठिनाई उपस्थित हो सकती है कि कुन्दकुन्द ने अपने गुरु भद्रबाहु को बारह अंगों के विज्ञाता, चौदह पूर्यों के विपुल विस्तारक श्रुतज्ञानी कहा है। किन्तु हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि हमारे प्रस्तुत भद्रबाहु उनसे २६८. जैनसाहित्य-संशोधक / खण्ड १/ अंक ३/परिशिष्ट / पृ.१४। "पुनः श्रीवज्रसूरि उत्तर दीशि थकी विहरता दक्षिण पंथि तुंगिया नगरइयं चौमासई रह्या।" २६९. स्तोत्रं तीर्थोपमानं प्रथितपृथुपथं स्वामिमीमांसितं तत्। । विद्यानन्दैः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्ध्यै॥ आप्तपरीक्षा / उपसंहार। २७०. स्वामिनश्चरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहम्। देवागमेन सर्वज्ञो येनाद्यापि प्रदर्श्यते॥ पार्श्वनाथचरित। २७१. सद्दवियारो हूओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं। सो तह कहियं णायं सीसेण य भद्दबाहुस्स॥ ६१॥ बारस अंगवियाणं चउदसपुव्वंगविउलवित्थरणं। सुयणाणिभद्दबाहू गमयगुरू भयवओ जयऊ॥ ६२॥ बोधपाहुड। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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