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________________ अ०१०/प्र०८ आचार्य कुन्दकुन्द का समय /५०१ सामन्तभद्रसूरि हुए।२६२ इस प्रकार वे सहज ही उन शिवार्य के लहुरे समसामयिक समझे जा सकते हैं, जिन्होंने वीरनिर्वाण से ६०९ वर्ष पश्चात् संघ स्थापित किया था।२६३ यह समय आप्त-मीमांसा के कर्ता समन्तभद्र के लिये भी अनुकूल सिद्ध होता है।२६४ ____ इस प्रकार स्थविरावली के भद्र और दिगम्बर-लेखों के भद्रबाहु को एक व्यक्ति एवं श्वेताम्बर-पट्टावलियों के सामन्तभद्र और दिगम्बरसाहित्य के समन्तभद्र को भी एक ही व्यक्ति सिद्ध करने के पश्चात् अब देखना यह है कि क्या उक्त प्रकार से प्रकट हुए दो व्यक्ति भी एक ही सिद्ध हो सकते हैं? इसके लिये हमें श्रवणबेल्गोल के प्रथम शिलालेख पर ध्यान देना चाहिए जो कि सब से प्राचीन है, अतः भद्रबाहु के सम्बन्ध में सब से अधिक प्रामाणिक आधार है। इस लेख को सावधानी से पढ़ने पर इस बात में कोई सन्देह नहीं रहता कि उज्जैनी में द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष की भविष्यवाणी करने वाले भद्रबाहु प्राचीन पाँच श्रुतकेवलियों में से नहीं हैं, किन्तु उनसे बहुत पीछे उसी आम्नाय में होने वाले दूसरे ही आचार्य हैं।२६५ अतः इन्हें दूसरे भद्रबाहु जानना चाहिये, और जिस दुर्भिक्ष की उन्होंने भविष्यवाणी की थी, वह वही होना चाहिये, जिसका उल्लेख आवश्यकचूर्णि में मिलता है। इस लेख के अनुसार वज्रस्वामी के समय में एक बड़ा घोर दुर्भिक्ष पड़ा, जिसके कारण वज्रस्वामी ने दक्षिण को विहार किया।२६६ पट्टावलियों के अनुसार वज्रस्वामी वज्रसेन के पूर्ववर्ती थे और वीर निर्वाण के ४९६ से ५८४ वर्ष पश्चात् तक जीवित रहे।२६७ यह समय समन्तभद्र के काल २६२. "स च श्रीवज्रसेनो --- सर्वायुः साष्यविंशतिशतं १२८ परिपाल्य श्रीवीरात् विंशत्यधिक षट्शत ६२० वर्षान्ते स्वर्गभाक्। --- श्रीवज्रसेनपट्टे पञ्चदशः श्रीचन्द्रसूरिः। तस्माच्चन्द्रगच्छ इति तृतीयं नाम प्रार्दुभूतम्। --- श्रीचन्द्रसूरिपट्टे षोडशः श्री सामन्तभद्रसूरिः।" २६३. छव्वाससाइं नवुत्तराई तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स। तो बोडिआण दिट्ठी रहवीरपुरे समुप्पन्ना॥ १४५ ॥ आवश्यकमूलभाष्य। २६४. "देखिये, पं० जुगलकिशोरकृत 'स्वामी समन्तभद्र,' पृ. ११५ आदि। दिगम्बरपरम्परानुसार समन्तभद्र विक्रम की दूसरी शताब्दी में हुए थे।" लेखक। २६५. देखिये, पादटिप्पणी क्र.२४९ । २६६. "इतो य वइरसामी दक्षिणावहे विहरति। दुब्भिक्खं च जायं बारसवरिसगं। सव्वतो समंता छिन्नपंथा। निराधारं जादं। ताहे वइरसामी विज्जाए आहडं पिंडं तद्दिवसं आणेति।" आवश्यकसूत्रचूर्णि / भा.१/ पत्र ४०४ / नियुक्ति गा. ७७४ की वृत्ति। २६७. "श्रीसीहगिरिपट्टे त्रयोदशः श्रीवज्रस्वामी यो बाल्यादपि जातिस्मृतिभाग् नभोगमनविद्यया संघ रक्षाकृत् दक्षिणास्यां बौद्धराज्ये जिनेन्द्रपूजानिमित्तं पुष्पाद्यानयनेन प्रवचनप्रभावनाकृतं देवाभि वन्दितो दशपूर्वविदामपश्चिमो वज्रशाखोत्पत्तिमूलम्। तथा स भगवान् --- सर्वायुरष्टाशीति .८८ वर्षाणि परिपाल्य श्रीवीरात् चतुरशीत्यधिकपञ्चशत ५८४ वर्षान्ते स्वर्गभाक्।" Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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