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________________ ५०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०८ उन्होंने मालवा, सिन्ध और ठक्क (पंजाब) में भी धर्मप्रचार किया और फिर वे कांचीपुर और करहाटक में जा पहुँचे। इनमें का अंतिम स्थान निस्संदेहरूप से बम्बई-प्रान्त के सतारा जिले का 'कराड' ही होना चाहिये और तब मेरे मतानुसार कांचीपुर कर्नाटक का क्रौंचपुर होना चाहिये, न कि मद्रास के निकट तामिलदेशीय काँची। उक्त पद्य में २५७ वैदिश संभवतः कांचीपुर का विशेषण है और वेदवती नदी का बोधक है, जो उसी बरदा का दूसरा नाम पाया जाता है, जिसके तट पर क्रौंचपुर स्थित था। यह विशेषण खासकर प्रस्तुत नगर को उसी नाम के अन्य प्रसिद्ध नगर से पृथक् निर्दिष्ट करने के लिये लगाया गया जान पड़ता है। समन्तभद्र के सम्बन्ध में जो दिगम्बरपरम्परा में अन्य बातें पाई जाती हैं, उन्हें यदि हम समन्तभद्र के सम्बन्ध में श्वेताम्बर-उल्लेखों के प्रकाश में देखें, तो वे अच्छी समझ में आने लगती हैं। समन्तभद्र के शिवकोटि के मन्दिर में प्रवेश२५८ करने का यह अर्थ समझा जा सकता है कि वे शिवभूति या शिवार्य के संघ में शिष्यरूप से प्रविष्ट हुए। एवं शिवप्रतिमा में से चन्द्रप्रभ की प्रतिमा प्रकट करना२५९ इस बात का सांकेतिक वर्णन हो सकता है कि शिवार्य के संघ में उन्होंने चन्द्रशाखा का वनवासीगच्छ स्थापित किया। भक्तामरस्तोत्र के कर्ता मानतुङ्ग इसी चन्द्रकुल में समन्तभद्र से चार पीढ़ी पीछे हुए कहे गये हैं,२६० तथा अपभ्रंशकाव्य करकंड-चरिउ के दिगम्बरकर्ता कनकामर मुनि ने भी अपने को चन्द्रगोत्रीय प्रकट किया है।२६१ सामन्तभद्र का जो काल श्वेताम्बर-पट्टावलियों में बतलाया गया है, वह भी उक्त अभिन्नत्व के अनुकूल पड़ता है। तपागच्छ-पट्टावली के अनुसार वज्रसेन का स्वर्गवास वीर निर्वाण से ६२० वर्ष पश्चात् हुआ और उनके उत्तराधिकारी चन्द्रसूरि और उनके २५७. पादटिप्पणी क्र. २५३ देखिए। "वैदिश को मालवा की विदिशा नगरी के अर्थ में लेने से प्रसंग ठीक नहीं बैठता, क्योंकि मालवा का उल्लेख पद्य में पहले ही आ चुका है। इसीलिए श्रवणबेलगोला के लेखों को पहले-पहल अनुवादित करनेवाले लुईस राइस ने उसका अर्थ 'out of the way Kanchi' अर्थात् दिशा से दूर की कांची किया था। श्री आय्यंगर उसका अनुवाद इस प्रकार करते हैं-'the far off city of Kanchi' अर्थात् बड़ी दूर का कांचीनगर।" लेखक। २५८. स योगी लीलया तत्र शिवकोटिमहीभुजा। कारितं शिवदेवोरुप्रासादं संविलोक्य च॥ २०॥ आदि (आराधना-कथाकोश)। २५९. देखिये, पादटिप्पणी क्र. २५२। २६०. देखिये, पट्टावलीसमुच्चय। २६१. चिरु दियंवरवंसुप्पण्णएण। चंदारिसिगोत्ते विमलएण॥ १० / २८ ॥ १॥ वइरायइ हुयई दियंवरेण। सुपसिद्धाणयाम-कणयामरेण ॥ १० /२८/२॥ करकण्डचरिउ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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