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________________ अ०१०/प्र०८ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४९९ उन्होंने अपनी धर्मयात्रा पाटलिपुत्र से प्रारम्भ की और वहाँ से वे मालवा, सिन्धु और ठक्क देशों में परिभ्रमण कर अन्ततः कांचीपुर करहाटक में पहुँचे।५३ ५. श्वेताम्बर पट्टावलियों में सामन्तभद्र की प्रसिद्धि चन्द्रकुल के आचार्य तथा वनवासी गच्छ के संस्थापक के रूप में पाई जाती है।५४ अब हमें यह देखने का प्रयत्न करना चाहिए कि उक्त बातों का निष्कर्ष क्या निकलता है। भद्र और भद्रबाहु का एकीकरण तो श्रवणबेलगोला के लेख नं० ४० (६४) से सहज ही हो जाता है, क्योंकि वहाँ स्पष्टतः कहा गया है कि भद्रबाहु का ही पूर्वनाम भद्र या श्रीभद्र था।२५५ ऐसी कोई बात भी नहीं पाई जाती, जिससे इस अभिन्नता का कोई विरोध उत्पन्न हो। समंतभद्र और सामंतभद्र इन दो नामों में तो प्रायः कोई भेद ही नहीं है। अकार का ह्रस्वत्व या दीर्घत्व कोई महत्त्व नहीं रखता। सामंतभद्र के सम्बन्ध में यह जो कहा गया है कि उन्होंने वनवासी-गच्छ स्थापित किया, उससे उनका सम्बन्ध दक्षिण देश से स्पष्ट है, क्योंकि उत्तर कर्नाटक देश का ही नाम वनवासी था। यही नाम उस देश के प्रमुख नगर ‘क्रौंचपुर' का भी था जो तुङ्गभद्रा की शाखानदी बरदा के तटपर स्थित था।२५६ वनवासी-गच्छ की स्थापना का इतिहास समंतभद्र-सम्बन्धी दिगम्बर-कथानकों के प्रकाश में अच्छा समझ में आ जाता है, जिसके अनुसार समंतभद्र ने अपनी धर्मयात्रा पाटलीपुत्र से प्रारम्भ की, पश्चात् २५३. पूर्वं पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता। पश्चान्मालव-सिन्धुठक्कविषये काञ्चीपुरे वैदिशे॥ प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं सङ्कटं। वादार्थी विचराम्यहन्नरपते शार्दूलविक्रीडितं ॥ ७॥ __ श्रवणवेल्गोला-लेख क्र. ५४ (६७)/ जै.शि.सं./ मा.च. / भा.१ । २५४. श्री वज्रशाखाधुरिवज्रसेनान्नागेन्द्रचन्द्रादिकुलप्रसूतिः। चान्द्रे कुले पूर्वगतश्रुताढ्यः सामंतभद्रो विपिनादिवासी॥ ९॥ गुरुपर्वक्रमवर्णनम् / गुणरत्नसूरि। सिरिवज्जसेणसूरी चाउद्दसमो चंदसूरि पंचदसो।। सामंतभद्दसूरी सोलसमो रण्णवासरई॥ ६॥ श्री चन्द्रसूरिपट्टे षोडशः श्रीसामंतभद्रसूरिः। स च पूर्वगत-श्रुतविशारदो वैराग्यनिधिर्निर्ममतया देवकुलवनादिष्वप्यवस्थानात् लोके वनवासीत्युक्तस्तस्माच्चतुर्थं नाम वनवासीति प्रादुर्भूतम्॥६॥ (तपागच्छ-पट्टावली)। निर्ग्रन्थः श्रीसुधर्माभिगणधरतः कोटिकः सुस्थितार्याच्चन्द्रः श्रीचन्द्रसूरेस्तदनु च वनवासीति सामन्तभद्रात् ॥ ३१॥ (श्रीसूरिपरम्परा)। और भी देखिए-पट्टावलीसारोद्धार (१६) श्री गुरुपट्टावली (१६) (पट्टावलीसमुच्चय / मुनि-दर्शनविजयकृत)। २५५. पादटिप्पणी क्र.२४८ देखिये। २५६. देखिये, Geographical Dictionary of Ancient and Mediaeval India, by ___Nundolal Dey. Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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