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________________ ४९८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०८ ३. ये ही वे भद्रबाहु थे, न कि उनसे पूर्ववर्ती, जिन्होंने श्रवणबेल्गोला शिलालेख नं० १ के अनुसार द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष की भविष्यवाणी की और उज्जयिनी से दक्षिण देश को प्रस्थान किया। इन भद्रबाहु को 'स्वामी' की विशेष उपाधि दी गई है।४९ ४. दिगम्बरजैन-साहित्य में जो आचार्य 'स्वामी' २५० की उपाधि से विशेषतः विभूषित किये गये हैं, वे आप्तमीमांसा के कर्ता समन्तभद्र ही हैं। कथाओं की परम्परा उनका शिवकोटि या शिवायन से भी संबंध स्थापित करती है।५१ कहा जाता है कि समन्तभद्र ने शिवकोटि के निर्माण किये हुए मंदिर में प्रवेश किया और वहाँ की शिवप्रतिमा में से चन्द्रप्रभ की प्रतिमा प्रगट की।५२ यह भी कहा गया है कि २४९. "गौतमगणधर-साक्षाच्छिष्य-लोहार्य-जम्बूविष्णुदेवापराजित-गोवर्द्धन-भद्रबाहु-विशाख प्रोष्ठिल-कृत्तिकार्य-जयनाम-सिद्धार्थ-धृतिषेण-बुद्धिलादि-गुरुपरम्परीणक्रमाभ्यागतमहापुरुषसन्तति-समवद्योतितान्वय-भद्रबाहुस्वामिना उज्जयिन्यामष्टाङ्गमहानिमित्ततत्त्वज्ञेन त्रैकाल्यदर्शिना निमित्तेन द्वादशसंवत्सर-कालवैषम्यमुपलभ्य कथिते सर्व्वस्सङ्घ उत्तरा पथाद्दक्षिणापथम्प्रस्थितः ---।" जैन शिलालेख संग्रह / माणिकचन्द्र / भा.१ / ले.क्र.१।। २५०. "स्वामी, यह वह पद है जिससे 'देवागम' के कर्ता महोदय खास तौर से विभूषित थे और जो उन की महती प्रतिष्ठा तथा असाधारण महत्ता का द्योतक है। बड़े-बड़े आचार्यों तथा विद्वानों ने उन्हें प्रायः इसी (स्वामी) विशेषण के साथ स्मरण किया है और यह विशेषण भगवान् समन्तभद्र के साथ इतना रूढ़ जान पड़ता है कि उनके नाम का प्रायः एक अंग हो गया है। इसी से कितने ही बड़े-बड़े विद्वानों तथा आचार्यों ने, अनेक स्थानों पर, नाम न देकर, केवल स्वामी पद के प्रयोग द्वारा ही उनका नामोल्लेख किया है और इससे यह बात सहज ही समझ में आ सकती है कि स्वामी रूप से आचार्य महोदय की कितनी अधिक प्रसिद्धि थी।" (पं० जुगलकिशोर मुख्तार : रत्नकरण्ड-श्रावकाचार भूमिका / पृ.८)। २५१. क- तस्यैव शिष्यश्शिवकोटिसूरिस्तपोलतालम्बितदेहयष्टिः। संसारवाराकरपोतमेतत्तत्त्वार्थसूत्रं तदलञ्चकार ॥ ११॥ जैन शिलालेख संग्रह / मा. च. / भा.१/ ले. क्र.१०५ (२५४)। ख– शिष्यौ तदीयौ शिवकोटिनामा शिवायन: शास्त्रविदां वरिष्ठौ। (विक्रान्तकौरवीय नाटक)। २५२. तां कुर्वन्नष्टमश्रीमच्चन्द्रप्रभजिनेशिनः। तमस्तमोरिव रश्मिभिन्नमिति संस्तुतेः॥ ६६॥ वाक्यं यावत्पठत्येवं स योगी निर्भयो महान्। तावत्तल्लिङ्गकं शीघ्रं स्फुटितं च ततस्तराम्॥ ६७॥ निर्गता श्रीजिनेन्द्रस्य प्रतिमा सुचतुर्मुखी। सञ्जातः सर्वतस्तत्र जयकोलाहलो महान्॥ ६८॥ समन्तभद्र स्वामी कथा ४/ नेमिदत्तकृत आराधनाकथा कोश। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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