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________________ अ०१० / प्र० ८ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४९७ कोटिक, कौटिक, कोडिअ आदि शब्द के सादृश्य से यही बटक, बोटिक आदि रूपों में परिवर्तित हुआ जान पड़ता है । २४३ ( लेख समाप्त ) । १.२. दूसरा लेख जैन इतिहास का एक विलुप्त अध्याय लेखक : प्रो० हीरालाल जी जैन मैंने अपने 'शिवभूति और शिवार्य' शीर्षक लेख में २४५ मूलभाष्य में उल्लिखित बोटिकसंघ के संस्थापक शिवभूति को एक ओर कल्पसूत्र - स्थविरावली के आर्य शिवभूति से और दूसरी ओर दिगम्बरग्रन्थ 'आराधना' के कर्त्ता शिवार्य से अभिन्न सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, जिससे उक्त तीनों नामों का एक ही व्यक्ति से अभिप्राय पाया जाता है, जो महावीर के निर्वाण से ६०९ वर्ष पश्चात् प्रसिद्धि में आये । मूलभाष्य की जिन गाथाओं पर से मैंने अपना अन्वेषण प्रारम्भ किया था, उनमें की एक गाथा में शिवभूति की परम्परा में 'कोडिन्नकोट्टवीर' का उल्लेख आया है। २४६ अतः प्रस्तुत लेख का विषय शिवभूति अपर नाम शिवार्य के उत्तराधिकारियों की खोज करना है। इस सम्बन्ध में मेरे प्राथमिक अन्वेषण से निम्नलिखित बातें प्रकाश में आती हैं १. स्थविरावली के अनुसार शिवभूति के शिष्य और उत्तराधिकारी 'भद्र' हुए। २४७ २. श्रवणबेलगोला के एक लेखानुसार भद्र या श्रीभद्र ही भद्रबाहु के नाम से प्रसिद्ध हुए और उन्हीं के शिष्य चन्द्रगुप्त थे । २४८ २४३. “ श्रीसुधर्मस्वामिनोऽष्टौ सूरीन् यावत् निर्ग्रन्थाः साधवोऽनगारा इत्यादि सामान्यार्थाभिधायिन्याख्याऽऽसीत्। नवमे च तत्पट्टे कौटिका इति विशेषार्थावबोधकं द्वितीयं नाम प्रादुर्भूतम् । " लपागच्छ-पट्टावली / ९ । -२४४ २४४. 'दिगम्बर जैन सिद्धान्त दर्पण' (द्वितीय अंश) / सम्पादक : पं० रामप्रसाद जी शास्त्री / प्रकाशक : दिगम्बर जैन पंचायत, बम्बई / १२ दिसम्बर, १९४४ ई. / पृ. १-११ से उद्धृत । २४५. नागपुर यूनिवर्सिटी जर्नल नं.९ । २४६. बोडिअसिवभूईओ बोडिअलिंगस्स होइ उप्पत्ती । कोडिन्नकोट्टवीरा परंपराफासमुप्पन्ना ॥ १४८ ॥ २४७. “ थेरस्स णं अज्जसिवभूइस्स कुच्छसगुत्तस्स अज्जभद्दे थेरे अंतेवासी कासवगत्ते ॥ २० ॥ ते वंदिऊण सिस्सा भद्दं बंदामि कासवगुत्तं " ॥ २ ॥ २४८. (श्री) भद्रस्सर्व्वतो यो हि भद्रबाहुरिति श्रुतः । श्रुतकेवलिन चरमः परमो मुनिः ॥ ४ ॥ चन्द्रप्रकाशोज्ज्वल-सान्द्रकीर्तिः श्रीचन्द्रगुप्तोऽजनि तस्य शिष्यः । प्रभावाद्वनदेवताभिराराधितः स्वस्य गणो श्रवणबेलगोल शिलालेख क्र. / ४० यस्य Jain Education International मुनीनां ॥ ५॥ (६४) / जै. शि. सं. / मा. चं. / भा. १ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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