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________________ ४९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१० / प्र०८ जहाँ पर दक्षिण-पश्चिम- प्रदेश का गुजरात से लगाकर कोकण तक का वह भाग, षट्खण्डागम सूत्रों की रचना के सम्बन्ध में चहल-पहल पाई जाती है । २४१ इस भूभाग पर दृष्टि डालने से हमें एक राहुरी नामक स्थान का पता चलता है, जो अहमदनगर से मनमाड़ की ओर पन्द्रह मील व तीसरा रेल्वे स्टेशन है। इसी स्थान का रहवीरपुर (पुरी) के साथ समीकरण सम्भव प्रतीत होता है । भाषाशास्त्र के नियमानुसार रहवीरपुरी नाम का भ्रष्ट होकर राहुरी बन जाना कठिन नहीं जान पड़ता । अब बोडिक, बोटिक अथवा बोटक शब्द का अर्थ समझना शेष रहा है । समयसुन्दर का यह वक्तव्य कि वह शिवभूति के एक शिष्य का नाम था, किसी भी आधार से प्रमाणित नहीं पाया जाता । श्वेताम्बर और दिगम्बर नामावलियों में कहीं भी बोटिक या बोटक जैसा नाम नहीं दिखाई देता । किसी अन्य टीकाकार ने भी इस बात का समर्थन नहीं किया। इसके विपरीत मूलभाष्य में उस शब्द का शिवभूति के तथा क और दूसरे शब्द 'लिंग' के विशेषण रूप से उल्लेख किया गया है, जिससे सूचित होता है कि बोटिक किसी ऐसी उपाधिविशेष का नाम था, जिसका विधान शिवभूति ने पहले-पहल किया होगा । मूलभाष्य में यह भी कहा गया है कि शिवभूति ने कह आदि अपने साथियों से उपधि के सम्बध में विचार किया था । 'मूलाराधना' में देखने से विदित होता है कि शिवार्य ने मुनियों के लिये गमनागमन करने व उठाने धरने आदि सब क्रियाओं में प्रतिलेखन के उपयोग पर बड़ा जोर दिया है। उन्होंने इसे ही मुनिधर्म का चिह्न और लिंग कहा है। इस प्रतिलेखन के ये गुण भी बतलाये गये हैं कि वह धूलि व पसीने से मैला नहीं होना चाहिये और उसे मृदु, सुकुमार और लघु भी होना चाहिए । २४२ इन गुणों तथा दिगम्बर मुनियों के सुप्रसिद्ध आचार से हम यह समझ सकते हैं कि यहाँ शिवार्य ने अपने अनुयायियों को एक पिच्छिका रखने का उपदेश दिया है। मुझे ऐसा जान पड़ता है कि उस समय बटेर के पंख सुलभ जान पड़े और उन्हीं का शिवार्य और उनके अनुयायियों ने उपयोग किया होगा । बटेर के लिये संस्कृत शब्द है 'वर्तक' जो कि प्राकृत में साधारणतः वट्टक, वटक, वडल या बडअ हो जायगा । श्री सुधर्म स्वामी से आठ पीढ़ियों के पश्चात् नवमी पीढ़ि के आर्य सुहस्ति के समय से श्वेताम्बर - सम्प्रदाय के लिये प्रयोग किये जानेवाले २४१. षट्खण्डागम / पु. १ / भूमिका / पृष्ठ १३ आदि । २४२. इरियादाणणिखेवे विवेगठाणे णिसीयणे सयणे । उव्वत्तण-परियत्तण-पसारणाउंटणामरसे ॥ ९८॥ पडिलेहणेण पडिलेहिज्जइ चिन्हं य होइ सगपक्खे। विस्सासियं च लिगं संजदपडिरूवदा चेव ॥ ९९ ॥ रयसेदाणमगहणं मद्दव सुकुमालदा लहुत्तं च । जत्थे पंच गुणा तं पडिलिहणं पसंसंति ॥ १०० ॥ भगवती - आराधना । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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