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५१० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र० ८
द्वारा उल्लिखित बीजबुद्धि शिवभूति को एक ही व्यक्ति मान लिया है। किन्तु यह मान्यता, प्रचुर विरोधों से भरी हुई है। ये चारों एक ही व्यक्ति नहीं हो सकते, क्योंकि इनके सम्प्रदाय, मान्यताएँ, स्थितिकाल और चरित्र अलग-अलग हैं।
कल्पसूत्र की स्थविरावली में उल्लिखित शिवभूति श्वेताम्बर - परम्परा के हैं । पाँचवीं शती ई० में जब देवर्द्धिगणि-क्षमाश्रमण कल्पसूत्र को पुस्तकारूढ़ कर रहे थे, तब भी उन्होंने उक्त शिवभूति को श्वेताम्बर - स्थविरावली में स्थान दिया है। इससे सिद्ध है कि वे पाँचवीं शताब्दी ई० तक श्वेताम्बराचार्य ही माने जाते थे और श्वेताम्बरों के लिए पूज्य थे। जब कि बोटिक - सम्प्रदाय - प्रवर्तक शिवभूति श्वेताम्बर - साहित्य के अनुसार प्रथम शताब्दी ई० में ही श्वेताम्बरसंघ छोड़कर बोटिक ( दिगम्बर) मत का प्रवर्तक बन गया था । तथा इसके चरित्र का जो चित्रण श्वेताम्बर - साहित्य में किया गया है, वह अत्यन्त हीन है। वह राजा का प्रियपात्र बन जाने से उद्धत आचरण करने लगा था। देर रात तक स्वच्छन्द घूमता रहता था और आधी रात को लौटकर घर का दरवाजा खुलवाता था, जिससे उसकी पत्नी सो नहीं पाती थी, वह उससे परेशान थी। एक बार उसकी माँ ने दरवाजा नहीं खोला, तो गुस्से में आकर श्वेताम्बर साधुओं के उपाश्रय में चला गया और श्वेताम्बर साधु बन गया। लेकिन लोभी होने से उसने राजा के द्वारा प्रदत्त रत्नकम्बल अपने गुरु को बतलाये बिना छिपाकर रख लिया। जब गुरु ने उसे देखा, तो उसे फाड़कर पादप्रौञ्छन बना दिये । इससे क्रुद्ध होकर उसने श्वेताम्बर साधु का वेश त्याग दिया और नग्न होकर दिगम्बरमत चला दिया। विशेषावश्यकभाष्य आदि श्वेताम्बरग्रन्थों में उसे घोर मिथ्यादृष्टि, प्रभूततर-विसंवादी और परलिंगी कहा गया है। क्या इस शिवभूति का कल्पसूत्र की स्थविरावली में मान्य श्वेताम्बराचार्य के रूप में उल्लेख हो सकता है? कदापि नहीं । अतः सिद्ध है कि कल्पसूत्र की स्थविरावली में निर्दिष्ट आर्य शिवभूति, बोटिक शिवभूति से सर्वथा भिन्न हैं ।
इसके अतिरिक्त विशेषावश्यकभाष्य में बोटिक शिवभूति के गुरु का नाम आर्यकृष्ण२९७ बतलाया गया है, किन्तु कल्पसूत्र की स्थविरावली में शिवभूति को पहले नमस्कार किया गया है और कृष्ण (कण्ह) को शिवभूति, कोसिय तथा दुज्जत्त के बाद । २९८ इससे सिद्ध है कि स्थविरावली के शिवभूति के गुरु आर्यकृष्ण नहीं हैं, अतः दोनों शिवभूति भिन्न-भिन्न हैं । भगवती - आराधना के कर्ता शिवार्य ने भी अपने तीन गुरुओं के नाम का उल्लेख किया है : जिननन्दिगणी, सर्वगुप्तगणी और मित्र नन्दी (गाथा 'अज्जजिण' २१५९ ) । इनमें भी आर्यकृष्ण का नाम नहीं है । अतः शिवार्य भी
२९७. उवहिविभागं सोउं सिवभूई अज्जकण्हगुरुमूले ॥ २५५३ ॥ विशेषावश्यकभाष्य । २९८. वंदामि फग्गुमित्तं च गोयमं धणगिरिं च वासि ।
कुच्छं सिवभूपि य कोसिय दुज्जत्त कण्हे य ॥ कल्पसूत्र - स्थविरावली / १ ।
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