________________
४९४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०८ है और कहा है कि वे महानुभाव तुष-माष की घोषणा करते हुए भावविशुद्ध होकर केवलज्ञानी हुये।२३४ प्रसंग पर ध्यान देने से यहाँ ऐसे ही मुनि से तात्पर्य प्रतीत होता है, जो द्रव्यलिंगी न होकर केवल भावलिंगी मुनि थे। ये शिवभूति अन्य कोई नहीं, वे ही स्थविरावली के शिवभूति, 'आराधना' के कर्ता शिवार्य ही होना चाहिये। भगवतीआराधना की गाथा ११२० में तुष और तंडुल की उपमा देकर संगत्याग द्वारा मोहमल को दूर करने की आवश्यकता बतलाई गई है,२३५ जिसके प्रकाश में ही भावपाहुड़ की गाथा का अर्थ स्पष्ट समझ में आता है।
इस तुष-माष अथवा तुष-तंडुलवाले सिद्धान्त का और भी मर्म भद्रबाहुकृत. आवश्यकनियुक्ति से खुलता है। नियुक्ति के अनुसार महावीरस्वामी के केवलज्ञान प्राप्त होने से लगातार ६१४ वर्ष में सात निह्नव उत्पन्न हुए। इनमें का अन्तिम निह्नव निर्वाण से ५८४ वर्ष पश्चात् दशपुर नगर में गोष्ठामाहिल के इस उपदेश से उत्पन्न हुआ कि जीव कर्म से स्पृष्ट तो है, पर बँधता नहीं है।२३६ इसे ही मूलभाष्यकार ने इस प्रकार समझाया है कि जैसे कंचुक उसके धारण करनेवाले पुरुष को स्पर्श तो करता है, पर उसे बाँधता नहीं है, उसी प्रकार कर्म का जीव के साथ स्पृष्ट किन्तु अबद्ध होने का समन्वय है।२३७ आवश्यकनियुक्ति की वृत्ति में मलयगिरि ने बताया है कि आर्यरक्षित के तीन उत्तराधिकारी थे-दुर्बलिका-पुष्यमित्र, गोष्ठामाहिल और फग्गुरक्षित। गोष्ठामाहिल को वाग्लब्धि प्राप्त थी, फिर भी आर्यरक्षित ने अपने पश्चात् गणधर दुर्बलिका-पुष्यमित्र को नियुक्त किया, जिससे गोष्ठामाहिल को क्षोभ हुआ।२३८ स्थविरावली के अनुसार पुष्यमित्र के पश्चात् फग्गुमित्र (फग्गुरक्षित), उनके पश्चात् धनगिरि और उनके पश्चात् शिवभूति हुए थे। शिवार्य ने सम्भवतः गोष्ठामाहिल के उसी सिद्धान्त को ध्यान में रखकर भगवती-आराधना में कहा है कि जब तक तुष दूर नहीं किया जायेगा, तब तक तण्डुल का भीतरी मैल साफ नहीं किया जा सकता और उनकी इसी भावशुद्धि की कुन्दकुन्दाचार्य ने भावपाहुड़ में प्रशंसा की है। भावपाहुड़ की गाथा
२३४. तुसमासं घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य। __णामेण य सिवभूई केवलणाणी फुडं जाओ॥ ५३॥ भावपाहुड। २३५. जह कुंडओ ण सक्को सोधेदुं तंदुलस्स सतुसस्स।
तह जीवस्स ण सक्कं मोहमलं संगसत्तस्स ॥ ११२० ॥ भगवती-आराधना। २३६. बहुरय पएस अव्वत्त समुच्छ दुग तिग अबद्धिआ चेव।
__ सत्ते ते निण्हवा खलु तित्थम्मि उ वद्धमाणस्स॥ ७७८॥ आवश्यकनियुक्ति। २३७. पुट्ठो जहा अबद्धो कंचुइणं कंचुओ समन्नेइ।
एवं पुटुमबद्धं जीवं कम्मं समन्नेइ॥ १४३॥ मूलभाष्य। २३८. देखिये, आवश्यकनियुक्ति, गाथा ७७७ की वृत्ति।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org