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________________ अ०१० / प्र० ८ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४९३ की परम्परा का तो है नहीं, क्योंकि उसमें अपवादरूप से मुनियों के लिये वस्त्रधारण करने का भी विधान है । २२८ और उसे कुन्दकुन्द से पश्चात्काल का सिद्ध करने के लिये कोई प्रमाण नहीं मिलता । किन्तु दूसरी ओर वह दिगम्बरसम्प्रदाय से पृथक् भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि परम्परा से उसका सम्बन्ध इस सम्प्रदाय के साथ पाया जाता है। उसके एक टीकाकार हैं अपराजित सूरि, जो 'आरातीयसूरि-चूड़ामणि' थे, २ २२९ और आरातीय को सर्वार्थसिद्धिकार ने सर्वज्ञ तीर्थंकर व श्रुतकेवली के समान ही प्रामाणिक वक्ता माना है।२३० उसके अन्य टीकाकार हैं अमितगति और आशाधर, जिनका दिगम्बरजैनसम्प्रदाय में विशेष मान है । २३१ इसके अतिरिक्त शिवार्य के गुरुओं के नामों में जो 'नन्दि' शब्द पाया जाता है, उससे भी उस ग्रन्थ का दिगम्बरों के साथ सम्बन्ध प्रकट होता है, क्योंकि उन्हीं में नन्दिसंघ की बड़ी प्राचीन सत्ता पाई जाती है और नन्दीनामान्त भी खूब प्रचलित मिलता है, जब कि श्वेताम्बर पट्टावलियों में इस नामान्त का उपयोग बिलकुल ही नहीं मिलता, तथा पश्चात्काल में भी उसका उपयोग क्वचित् ही पाया जाता है। प्राप्य श्वेताम्बर - पट्टावलियों पर दृष्टि डालने से मुझे तो केवल दो ही नाम उस प्रकार के दिखलाई दिये- एक इन्द्रिनन्दी और दूसरे उदयनन्दी । ये दोनों ही पन्द्रहवीं शताब्दी से भी पश्चात्कालीन हैं । २३२ शिवार्य के तीन गुरुओं में से एक जो सर्वगुप्तगणी थे, आश्चर्य नहीं, वे ही सर्वगुप्त हों, जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोला - शिलालेख नं० १०५ (२५४) में चार आचारांगधारियों के पश्चात् एवं कुन्दकुन्दाचार्य से पूर्व किया गया है । २३३ कुन्दकुन्दाचार्य ने अपने भावपाहुड़ की गाथा ५३ में शिवभूति का उल्लेख बड़े सन्मान से किया २२८. जस्स वि अव्वभिचारी दोसो तिट्ठाणिओ विहारम्मि । 莊 सो वि हु संथारगदो गे‍हेज्जोस्सुग्गियं लिंगं ॥ ८० ॥ * आवसधे व अप्पाउग्गे जो वा महढिओ हिरिमं । मिच्छजणे सजणे वा तस्स होज्ज अववादियं लिंगं ॥ ८१ ॥ २२९. “चन्द्रनन्दिमहाकर्मप्रकृत्याचार्यप्रशिष्येण आरातीयसूरिचूडामणिना नागनन्दिगणिपादपद्मोपसेवाजातमतिलवेन बलदेवसूरिशिष्येण जिनशासनोद्धरणधीरेण लब्धयशः प्रसरेणापराजितसूरिणा श्रीनन्दिगणिनावचोदितेन रचिता ।" विजयोदया टीका / टीकाकारकृत प्रशस्ति । २३०. “त्रयो वक्तारः - सर्वज्ञस्तीर्थकर इतरो वा श्रुतकेवली आरातीयश्चेति । " स.सि./१/२० । २३१. “ भगवती-आराधना की और भी टीकाओं आदि के लिये देखिए, पं० नाथूरामकृत 'जैन साहित्य और इतिहास / पृ. २३ आदि ।" लेखक । २३३. सर्वज्ञः २३२. 'पट्टावली समुच्चय ' / मुनि दर्शनविजयकृत / पृ. ३९ और ६७ । सर्वगुप्तो महिधर - धनपालौ महावीरवीरौ । दीव्यत्तपस्या, शास्त्राधारेषु पुण्यादजनि स जगतां कोण्डकुन्दो यतीन्द्रः ॥ १३ ॥ इत्याद्यानेकसूरिष्वथ सुपदमुपेतेषु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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