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४९२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०८ ____३. मूलभाष्य में शिवभूति का सम्बन्ध एक और आचार्य से बतलाया गया है, जिनका नाम कण्ह था, उसी प्रकार कण्ह का उल्लेख स्थविरावली के पद्यभाग में शिवभूति के साथ-साथ किया गया है।
____४. समयसुन्दर ने अपनी स्थविरावली की टीका में कहा है कि शिवभूति के एक ही बोटक नामक शिष्य ने (वीर) निर्वाण से ६०९ वर्ष पश्चात् दिगम्बरसंघ की स्थापना की थी।२२६ इस कथन का मूलभाष्य के तथा जिनभद्रगणी, कोट्याचार्य और मलयगिरि जैसे टीकाकारों की परम्परा के वृत्तांत से विरोध पड़ता है, जिससे ऐसा जान पड़ता है कि उक्त कथन स्थविरावली के शिवभूति को बोटिकसंघ के संसर्ग से बचाने के लिये जान बूझकर गढ़ा गया है। किन्तु उससे केवल वह अभिन्नता पूर्णतः सिद्ध हो जाती है।
अब हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि क्या इन आर्य शिवभूति का दिगम्बरसम्प्रदाय के किसी आचार्य के साथ एकत्व सिद्ध होता है? उक्त नाम एकंदम हमें 'आराधना' अथवा 'भगवती-आराधना' के कर्ता का स्मरण दिलाता है, जिनके साथ उक्त एकत्व कदाचित् सम्भव हो, क्योंकि इन आचार्य का नाम ग्रंथ में शिवार्य पाया जाता है, जिनके तीन गुरुओं के नाम आर्य जिननन्दिगणी, शिवगुप्तगणी और आर्य मित्रनन्दी कहे गये हैं।२२७ इन नामोल्लेख से इतना तो स्पष्ट है कि 'आर्य' नाम का अंश नहीं, किन्तु एक आदरसूचक उपाधि थी, जो स्थविरावली में सभी आचार्यों के नामों के साथ लगी हुई पायी जाती है। अतः शिवार्य 'आर्य शिव' के समरूप है, जिसका एकत्व आर्य शिवभूति के साथ बैठना कठिन नहीं है, क्योंकि नाम के उत्तरार्ध को छोड़ कर उल्लेख करना एक साधारण बात है, जैसा कि रामचन्द्र के लिये राम, कृष्णचन्द्र के लिये कृष्ण व भीमसेन के लिये भीम के उल्लेखों में पाया जाता है। फिर यह 'आर्य' उपाधि स्थविरावली में तो साधारण है, किन्तु दिगम्बर-पट्टावलियों में प्रायः अप्राप्य है और उक्त उल्लेखों के अतिरिक्त क्वचित् ही उसका उपयोग पाया जाता है। मुझे केवल वीरसेन के गुरु आर्यनन्दी का स्मरण आता है, जिनका नामोल्लेख धवलाटीका की प्रशस्ति में 'आर्य'-शब्द-पूर्वक किया गया है। इसके अतिरिक्त शिवार्य के ग्रन्थ 'आराधना' का दिगम्बर साहित्य में कुछ असाधारण स्थान है। वह ग्रन्थ कुन्दकुन्द २२६. "शिवभूतिशिष्यः एको बोटकनामाऽभूत्। तस्मात् वीरात् सं० ६०९ वर्षे बोटकमतं जातं
दिगम्बरमतमित्यर्थः।" २२७. अज्जजिणणंदिगणि-सव्वगुत्तगणि-अज्जमित्तणंदीणं।
अवगमिय पादमूले सम्म सुत्तं च अत्थं च॥ २१६१॥ पुव्वायरियणिबद्धा उवजीवित्ता इमा ससत्तीए। आराहणा सिवज्जेण पाणिदलभोइणा रइदा ॥ २१६२॥
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