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________________ अ०१०/प्र०८ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४९१ में हुई। बोटिकों को बहुधा दिगम्बरों से अभिन्न माना जाता है, अतः श्वेताम्बर-पट्टावलियों में वीरनिर्वाण से ६०९ वर्ष पश्चात् दिगम्बरसम्प्रदाय की उत्पत्ति का उल्लेख किया गया है। - अब हमें यह देखने की आवश्यकता है कि क्या इन शिवभूति का श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्यों में से किसी के साथ एकत्व स्थापित किया जा सकता है? श्वेताम्बरों द्वारा सुरक्षित आचार्यों की पट्टावलियों में कल्पसूत्र-स्थविरावली सबसे प्राचीन समझी जाती है। इसमें हमें फग्गुमित्त के उत्तराधिकारी धनगिरि के पश्चात् शिवभूति का उल्लेख मिलता है।२२५ ये ही शिवभूति मूलभाष्य में उल्लिखित शिवभूति से अभिन्न प्रतीत होते हैं, जिसके प्रमाण निम्नलिखित हैं १. दोनों नाम बिल्कुल एक हैं। २. यद्यपि स्थविरावली में आचार्यों के समय का उल्लेख नहीं किया गया, तथापि अन्य पट्टावलियों में समय का भी उल्लेख मिलता है, जिसके अनुसार स्थविरावली के शिवभूति का वही समय पड़ता है, जो मूलभाष्य के शिवभूति का कहा गया है। ऊहाए पण्णत्तं बोडिअसिवभूइ-उत्तराहि इमं। मिच्छादसणमिणमो रहवीरपुरे समुप्पणं ॥ १४७ ॥ बोडिअसिवभूईओ बोडिअलिंगस्स होइ उप्पत्ती। कोडिन्नकोट्टवीरा परंपराफासमुप्पण्णा ॥ १४८ ॥ आवश्यक-मूलभाष्य। __ "इन गाथाओं का ठीक अनुवाद इस प्रकार होता है-जब वीर निर्वाण के पश्चात् ६०९ वर्ष समाप्त हो गये, तब बोडिकों की दृष्टि रहवीरपुर में उत्पन्न हुई। रहवीरनगर के दीपक उद्यान में आर्य कण्ह भी थे, तब शिवभूति ने उपधि-सम्बन्धी प्रश्न उठाया, जिस पर थेरों ने अपने-अपने विचार प्रकट किये। ऊहापोह के पश्चात् उन शिवभूति-प्रधान थेरों ने 'बोडिक' (मत) स्वीकार किया। इस प्रकार रहवीरपुर में यह मिथ्यादर्शन उत्पन्न हुआ। बोडिक शिवभूति से बोडिकलिंग की उत्पत्ति हुई और कोडिन्नकुट्टवीर उनकी परम्परा के स्पर्श से उत्पन्न हुए। नोट-उपलब्ध पाठ की गाथा १४७ में 'उत्तराहि' पाठ ठीक नहीं प्रतीत होता। उसके स्थान पर उत्तरेहि पाठ रहा जाना पड़ता है, जिसका अर्थ होता है 'प्रधानैः'। उत्तरा पाठ या तो भ्रम से या जान बूझकर उस पर से शिवभूति की बहिन की कल्पना करके इस संघ का हास्य करने की दृष्टि से उत्पन्न हुआ जान पड़ता है।" लेखक। २२५. "थेरस्स णं अज्जधणगिरिस्स वासिट्ठगुत्तस्स अजसिवभूइ थेरे अंतेवासी कुच्छसगुत्ते॥ ११॥ वंदामि फग्गुमित्तं च गोयमं धणगिरिं च वासिटुं। कुच्छं सिवभूई पि य कोसिय दुज्जत्त कण्हे य ॥ १॥" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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