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________________ अष्टम प्रकरण प्रो० हीरालाल जी जैन के मत का निरसन प्रो. हीरालाल जी का मत प्रसिद्ध जैन विद्वान् स्व० प्रो० हीरालाल जी ने (जो जन्मना दिगम्बरजैन थे) एक चौंकाने-वाले, कपोलकल्पित इतिहास के आधार पर आचार्य कुन्दकुन्द का समय वीरनिर्वाण के ६५० वर्ष बाद अर्थात् ईसा की द्वितीय शताब्दी (ईसापूर्व ५२७-६५०=१२३ ई०) में बतलाया है। यह कपोलकल्पित इतिहास उन्होंने अपने जैन इतिहास का एक विलुप्त अध्याय नामक शोधपत्र में निबद्ध किया है, जो 'अखिल भारतीय प्राच्य सम्मेलन' के १२ वें अधिवेशन (१९४४ ई०) में वाराणसी में पढ़ा गया था। इस शोधपत्र में उन्होंने केवल नामसाम्य के आधार पर भगवती-आराधना के कर्ता दिगम्बर शिवार्य, तुषमाष-घोषक दिगम्बरमुनि शिवभूति, श्वेताम्बर-कल्पसूत्र की स्थविरावली में उल्लिखित शिवभूति तथा बोटिकसम्प्रदाय के संस्थापक शिवभूति इन चारों को एक ही व्यक्ति बतलाया है। इसी प्रकार दिगम्बर भद्रबाहु-द्वितीय एवं दिगम्बर समन्तभद्र तथा श्वेताम्बर भद्रबाहु-द्वितीय एवं श्वेताम्बर सामन्तभद्र को भी एक ही व्यक्ति सिद्ध करने की चेष्टा की है। और मजे की बात यह है कि इस अभिन्नता के द्वारा श्वेताम्बरपरम्परा के शिवभूति एवं भद्रबाहु-द्वितीय आदि का दिगम्बरीकरण न कर, दिगम्बर शिवार्य (शिवभूति), दिगम्बर भद्रबाहु-द्वितीय और दिगम्बर समन्तभद्र का श्वेताम्बरीकरण किया है। क्योंकि प्रोफेसर सा० की मान्यता है कि उस समय दिगम्बरमत की उत्पत्ति ही नहीं हुई थी, उसका प्रवर्तन तो द्वितीय शताब्दी ई० में कुन्दकुन्द ने किया था। इस प्रकार वे शिवभूति और भद्रबाहु-द्वितीय को श्वेताम्बर और बोटिक दोनों मानते हैं, दिगम्बर किसी को भी नहीं मानते। यहाँ ध्यान देने योग्य है कि प्रोफेसर हीरालाल जी ने भी बोटिकसम्प्रदाय को यापनीयसम्प्रदाय का पूर्वरूप माना है। फिर वे बतलाते हैं कि श्वेताम्बर-बोटिक शिवभूति के शिष्य बने श्वेताम्बर भद्रबाहु-द्वितीय तथा श्वेताम्बर-बोटिक भद्रबाहु-द्वितीय के शिष्य हुए कुन्दकुन्द। शिवभूति के दूसरे शिष्य घोषनंदी हुए और उनके शिष्य हुए उमास्वाति। इस प्रकार प्रोफेसर सा० ने कुन्दकुन्द को आरंभ में श्वेताम्बर और बोटिक दोनों माना है। किन्तु , वे कहते हैं कि आगे चलकर कुन्दकुन्द ने सवस्त्रमुक्ति और स्त्रीमुक्ति का सर्वथा निषेध कर दिया और इस प्रकार दिगम्बरमत का प्रवर्तन किया। किन्तु उनके इस कठोरमार्ग के प्रवर्तन से असहमत तथा शिवभूति के आपवादिक Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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