SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 542
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०७ गयी पुस्तकों में पूरे पाठ का संक्षेप दिया गया है और अंश के अंश निकाल दिये गये हैं। इन पदों की मौलिकता के विरुद्ध जो कारण दिये गये हैं, वे ठहर नहीं सकते, जैसा कि कोनो ने प्रमाणित कर दिया है।"२२२ कोनो के प्रमाणित करने से यह शंका भी निर्मूल हो जाती है कि कालिदासकृत विक्रमोर्वशीयम् नाटक के अपभ्रंश-पद प्रक्षिप्त हैं। वे मौलिक हैं और ईसा की प्रथम शताब्दी में रचित नाटक में मिलते हैं, यह इस बात का प्रमाण है कि ईसा की प्रथम शताब्दी में अपभ्रंश प्रचलित थी। तथा अशोक एवं खारवेल के पूर्वोक्त शिलालेखों एवं दशवकालिकसूत्र में अपभ्रंश भाषा के प्रयोग से सिद्ध है कि उसका प्रयोग ईसापूर्व द्वितीय, तृतीय एवं पंचम शताब्दी में भी होता था। अतः कुन्दकुन्दकृत षट्प्राभृत की भाषा में अपभ्रंश के लक्षण मिलने से उसके ईसोत्तर प्रथम शताब्दी की रचना होने में कोई बाधा नहीं आती। . २२२. डॉ. रिचार्ड पिशल : 'प्राकृत भाषाओं का व्याकरण' / विषयप्रवेश / पृ. ५९-६०/ अनुवादक : डॉ. हेमचन्द्र जोशी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy