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________________ अ०१०/प्र०७ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४८७ निर्धारित किया है। उसमें उन्होंने हिन्दी के अनेक शब्दों की खोज की है। उनके अनुसार उसमें हिन्दी-शब्द प्रचुरता से प्राप्त हैं। उनका यह विस्तृत वैज्ञानिक निबन्ध परिषद्-पत्रिका (पटना ८/३-४) के भाषा-सर्वेक्षणांक में प्रकाशित है। उन्होंने दशवैकालिकसूत्र में प्राप्त होनेवाले तद्भव एवं देश्य शब्दों की ऐसे हिन्दी-शब्दों के साथ तुलना की है, जो प्राचीन, आधुनिक और स्थानीय हिन्दी भाषा में अथवा किंचित् परिवर्तित अर्थ में शब्दों के अर्थसंकोच अथवा विस्तार के साथ उपलब्ध हैं। उदाहरणार्थ : माउसी (मौसी) ७/१५, लोग (जनता) ८/४४, मसान (श्मसान) १९ /१२, मनुस (मनुष्य) ७/२२, धोवन (धोवन) ५/१/७५, मुह (मुख) ४/१० बीय, (बीज), सत्तू (सत्तू) ५/१/७१, लोढ़ (पत्थर) ५/१/४५, चाउल (चावल) ५/१/७५, दंतवण (दतवन) ३/९, पप्पड़ (पापड़) ५/२/२१, थिग्गल (थिगली) ५/१/१५, लट्ठी (लाठी) ७/२८ आदि। उक्त तथ्य इस बात के संकेतक हैं कि हिन्दी-भाषा के उद्भव की अभी तक जो कालसीमा मान्य थी, नवीन खोजों के आलोक में उस पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।" ('शोध'-५ / नागरी प्रचारिणी सभा, आरा भोजपुर, बिहार । १९८७-८८ ई० / पृ०७७)। जब डॉ० आर० के० चन्द्र ने स्वयं ईसापूर्व पाँचवी शती के माने जानेवाले श्वेताम्बरग्रन्थ दशवैकालिकसूत्र में हिन्दी के शब्दों का प्रयोग सिद्ध किया है, तब ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी के आचार्य कुन्दकुन्दकृत षट्प्राभृत में यदि हिन्दी से पूर्ववर्ती अपभ्रंश के शब्दों की उपलब्धि होती है, तो इससे षट्प्राभृत को ईसा की ५-६वीं शताब्दी ई० का ग्रन्थ कैसे माना जा सकता है? यह तो डॉ० चन्द्र के ही द्वारा प्रस्तुत उपर्युक्त प्रमाण से असत्य सिद्ध हो जाता है। वस्तुतः अशोक के उपर्युक्त स्तम्भलेख एवं 'दशवैकालिकसूत्र' में उपलब्ध उक्त शब्द हिन्दी-शब्दों से साम्य रखने एवं हिन्दीभाषा के आरम्भकाल से अत्यन्त पूर्ववर्ती होने के कारण प्राकृत या अपभ्रंश के ही माने जाने चाहिए। संस्कृत के सुप्रसिद्ध महाकवि कालिदास का समय विद्वानों ने विक्रम का प्रथम शतक माना है। उनके नाटक विक्रमोर्वशीयम् में अपभ्रंश के पद्य मिलते हैं। __ प्राकृत भाषाओं के जर्मन विशेषज्ञ डॉ. रिचार्ड पिशल लिखते है-"अपभ्रंश के ज्ञान के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण हेमचन्द्र के प्राकृतव्याकरण के अध्याय ४ के सूत्र ३२९ से ४४६ तक हैं। --- हेमचन्द्र के बाद महत्त्वपूर्ण (अपभ्रंश-) पद विक्रमोर्वशी पेज ५५ से ७२ तक में मिलते हैं। शंकर परब पण्डित और ब्लौख का मत है कि ये मौलिक नहीं, क्षेपक हैं, किन्तु ये उन सभी हस्तलिखित प्रतियों में मिलते हैं, जो दक्षिण में नहीं लिखी गयी हैं। यह बात हम जानते हैं कि दक्षिण में लिखी Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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