SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 540
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०७ आसिनवे ३. नामा ति [1] दुपटिवेखे चु खो एसा [ 1] हेवं चु खो एस देखिये [1] इमानि ४. आसिनव-गामीनि नाम अथ चंडिये निठूळिये कोधे माने इस्या ५. कालनेन व हकं मा पळिभसयिसं [1] एस वाढ देखिये [1] इयं मे ६. हिदतिकाये इयंमन मे पाळतिकाये [1] (डॉ० शिवस्वरूप सहाय : 'भारतीय पुरालेखों का अध्ययन'/ पृ.१२४)। अनुवाद १. देवों का प्रिय राजा ऐसा कहता है-(मनुष्य अपने द्वारा किये गये) कल्याण को ही देखता है (और सोचता है कि) मेरे द्वारा यह २. कल्याण किया गया। (वह अपने द्वारा किये गये) पाप को नहीं देखता __ (और न यह सोचता है कि) मेरे द्वारा यह पाप किया गया अथवा यह पाप है। ३. यह सचमुच कठिनाई से देखा जा सकता है, किन्तु इसे अवश्य देखना चाहिए कि ये ४. पाप की ओर ले जाते हैं-चण्डता, निष्ठुरता, क्रोध, अभिमान ईर्ष्या ५. इनके कारण मैं अपने को भ्रष्ट न करूँ। इसे गंभीरता से देखना चाहिए __ कि ये मेरे ६. इस लोक के लिए लाभकारी हैं तथा परलोक के लिए कल्याणकारी हैं। प्रो० डॉ० राजाराम जी जैन लिखते हैं-"यहाँ देखने के अर्थ में देखिये शब्द का प्रयोग द्रष्टव्य है, जो आज भी हिन्दी के क्षेत्र में यथावत् प्रयुक्त है।" ('शोध५'/नागरी प्रचारिणी सभा, आरा, भोजपुर : बिहार, १९८७-८८ ई०/ पृ. ७६)। हिन्दी तो अपभ्रंश का विकसित रूप है। अतः जब अपभ्रंश का विकसित रूप अशोक के शिलालेखों की भाषा में मिल सकता है, तब आचार्य कुन्दकुन्द के षट्प्राभृत में अपभ्रंश के प्रयोग मिलना आश्चर्य की बात नहीं है। प्रो० डॉ० राजाराम जी जैन आगे लिखते हैं-"अर्द्धमागधी-प्राकृतागम के उक्त दशवैकालिकसूत्र का समय डॉ० के० आर० चन्द्र ने ईसापूर्व ४५२ से ४२९ तक Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy