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सप्तम प्रकरण डॉ० चन्द्र के अपभ्रंश-प्रयोग-हेतुवाद का निरसन श्वेताम्बर विद्वान् डॉ० के० आर० चन्द्र ने अपने एक लेख 'षट्प्राभृत के रचनाकार और उसका रचनाकाल' में लिखा है२१९ कि कुन्दकुन्द के षट्प्राभृत में अपभ्रंश भाषा का प्रयोग है, इसलिए उसका रचनाकाल अपभ्रंशयुग (पाँचवीं-छठी शताब्दी ई०) में चला जाता है। इसलिए न तो वह स्वयं कुन्दकुन्दाचार्य की रचना है और न ही उनके द्वारा प्रचलित किया गया प्राचीन गाथाओं का संकलन, जैसी कि डॉ० ए० एन० उपाध्ये की धारणा है।२२० ___ इस विषय में मेरा निवेदन है कि अपभ्रंश के प्रयोग ई० पू० द्वितीय शताब्दी के सम्राट् खारवेल के हाथीगुम्फाभिलेख में भी मिलते हैं। इतिहासकार श्री चिमनलाल जैचंद शाह लिखते हैं-"उस शिलालेख का, जैसा भी वह है, अनुसरण करते हुए हम देखते हैं कि उसकी भाषा अपभ्रंश प्राकृत है, जिसमें अर्धमागधी और जैनप्राकृत के भी छींटे हैं। यह शिलालेख खारवेल के राज्य के तेरहवें वर्ष में खुदवाया गया था।" (उत्तरभारत में जैनधर्म / पृ.१३६)।
ईसापूर्व तीसरी शताब्दी के सम्राट अशोक के शिलालेखों में तो हिन्दी के प्रयोग भी देखने को मिलते हैं। और स्वयं डॉ० के० आर० चन्द्र ने ईसापूर्व ५वीं शती की कृति माने जानेवाले दशवैकालिकसूत्र में हिन्दी-शब्दों के प्रयोग के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। इसका उल्लेख करते हुए प्रो० डॉ० राजाराम जी जैन 'हिन्दी का उद्विकास और भोजपुर की साहित्यक प्रगति' नामक अपने शोध आलेख में लिखते हैं
"प्रियदर्शी मौर्य सम्राट अशोक के स्तम्भलेखों एवं अर्धमागधी-प्राकृतागम के दशवैकालिकसूत्र का भी भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन हुआ है।"२२१ इनमें हिन्दीशब्दों के प्रयोग के प्रमाणस्वरूप उन्होंने अशोक के देहली-टोपरा-तृतीय स्तम्भलेख के "कयानमेव देखति ---" इत्यादि कुछ वाक्य उद्धृत किये हैं। वह पूरा स्तम्भलेख इस प्रकार है
१. देवानं पिये पियदसि लाज हेवं अहा [।] कयानमेव देखिति इयं मे २. कयाने कटे ति [1] नो मिन पापं देखति इयं मे पापे कटे ति इयं वा
२१९. देखिए , 'श्रमण' (पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी)/अक्टूबर-दिसम्बर, १९९७ ई. / पृ. ५२ । २२०. देखिए, प्रवचनसार : प्रस्तावना/प.३६ । २२१. 'शोध-५' नागरी-प्रचारिणी सभा, आरा (भोजपुर, बिहार)/१९८७-८८ ई. / पृ.७६
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