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४८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र० ६
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अतः
की कई गाथाओं को भी जोइन्दु ने परमात्मप्रकाश में अपभ्रंशरूप दिया है। कुन्दकुन्द ने जोइन्दु से बहिरात्मादि-भेद ग्रहण किये होंगे, यह संभावना भी निरस्त हो जाती है।
इस प्रकार यह किसी भी तरह से सिद्ध नहीं होता कि कुन्दकुन्द ने आत्मा के बहिरात्मादि तीन भेद उपनिषदों अथवा पूज्यपाद देवनन्दी या जोइन्दुदेव से ग्रहण किये हैं।
उपर्युक्त प्रमाणों और युक्तियों से यह बात अच्छी तरह प्रकट हो जाती है प्रो० ढाकी ने कपोलकल्पित हेतुओं के द्वारा कुन्दकुन्द को ८वीं शती ई० में विद्यमान सिद्ध करने की चेष्टा की है । यतः उनके द्वारा प्रस्तुत एक भी हेतु वास्तविक नहीं है, अतः कुन्दकुन्द को ८वीं शती में विद्यमान सिद्ध करने का उनका प्रयास विफल हो जाता है, और पूर्व प्रस्तुत प्रमाणों से यही स्थित रहता है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने अस्तित्व से भारतभूमि को ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में सुशोभित किया था ।
२१८. वही / दोहा १ / ८६, २ / १३, १७६-१७७।
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