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अ०१०/प्र०६
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४८१ प्रथम शती ई० के मूलाचार में भी 'शुद्धभाव' का उल्लेख किया गया है
मणगुत्ते मुणिवसहे मणकरणोम्मुक्कसुद्धभावजुदे। आहारसण्णविरदे फासिंदियसंपुडे चेव॥ १०२३॥ पुढवीसंजमजुत्ते खंतिगुणसंजुदे पढमसील।
अचलं ठादि विसुद्धे तहेव सेसाणि णेयाणि॥ १०२४॥ अनुवाद-"जो मुनि मनोगुप्तिधारी, मन:करण से रहित, शुद्धभाव से युक्त, आहारसंज्ञा से विरत, स्पर्शनेन्द्रिय से संवृत, पृथिवी-संयम से युक्त और क्षमागुण से युक्त होता है, उस विशुद्ध मुनि का प्रथमशील अचल होता है।"। शुद्धभाव या शुद्धोपयोग को मूलाचार में पारमार्थिक विशुद्धि भी कहा गया है
परमट्ठियं विसोहिं सुटु पयत्तेण कुणइ पव्वइओ।
परमट्ठदुगुंछा वि य सुटु पयत्तेण परिहरउ॥ ९४९॥ अनुवाद-"दीक्षित मुनि को पारमार्थिक विशुद्धि प्रयत्नपूर्वक करनी चाहिए तथा परमार्थ निन्दा का परिहार भी सावधानी से करना चाहिए।"
द्वितीय शताब्दी ई० में रचित तिलोयपण्णत्ती में कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से अनेक गाथाएँ ग्रहण की गयी हैं। उनमें शुभ, अशुभ और शुद्ध भावों या उपयोगों का स्पष्ट रूप से वर्णन है। इसी अध्याय के प्रथम प्रकरण में शीर्षक ५.२ के नीचे उक्त गाथाएँ उद्धृत की गयी हैं।
__सर्वार्थसिद्धिटीका (५वीं शती ई०) में सम्यग्दर्शन के दो भेद बतलाये गये हैं: सराग और वीतराग। जो प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य, इन शुभरागात्मक भावों से सूचित होता है, वह सरागसम्यग्दर्शन है और जो शुभरागात्मक एवं अशुभरागात्मक दोनों प्रकार के भावों से रहित आत्मविशुद्धिमात्र होता है अर्थात् मात्र शुद्धभाव के साथ विद्यमान होता है, वह वीतराग सम्यग्दर्शन है
"तद् द्विविधं, सरागवीतरागविषयभेदात्। प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याघभिव्यक्तिलक्षणं प्रथमम्। आत्मविशुद्धिमात्रमितरत्।"(स. सि./१/२)।
इस प्रकार पाँचवी शती ई० की सर्वार्थसिद्धि में भी शुभ और अशुभ भावों से विलक्षण शुद्धभाव का उल्लेख मिलता है, जिसका उपदेश सर्वार्थसिद्धिकार को कुन्दकुन्द के माध्यम से ही प्राप्त हुआ है। छठी सदी ई० के परमात्मप्रकाश में भी तीनों भावों का वर्णन है। यथा
सुह-परिणामें धम्मु पर असुहे होइ अहम्म। दोहिँ वि एहिँ विवजियउ सुद्ध ण बंधइ कम्मु॥२/७१॥
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