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________________ ४८० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१० / प्र०६ प्रथम शती ई० के ग्रन्थ भगवती आराधना की निम्नलिखित गाथा में 'शुद्धोपयोग' शब्द का उल्लेख है अणुकंपासुद्धवओगो वि य पुण्णस्स आसवदुवारं । तं विवरीदं आसवदारं पावस्स कम्मस्स ॥ १८२८ ॥ अनुवाद- 'अनुकम्पा और शुद्धोपयोग पुण्यकर्म के आस्रव के द्वार हैं तथा उनसे विपरीत परिणाम ( अननुकम्पा और अशुद्धोपयोग ) पापकर्म के आस्रव के द्वार ।" 44 यद्यपि इस गाथा में शुद्धोपयोग और अशुद्धोपयोग शब्द शुभोपयोग और अशुभोपयोग के अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं, तथापि भगवती - आराधना में 'अशुभपरिणाम' शब्द का भी प्रयोग हुआ है, २१० जो प्रतिपक्षी 'शुभपरिणाम' शब्द की स्वीकृति का सूचक है और अधोलिखित गाथा में इन दोनों परिणामों को संसार - महोदधि में चिरकाल तक भ्रमण करानेवाला कहा गया है दुविहपरिणामवादं संसारमहोदधिं परमभीमं । अदिगम्म जीवपोदो भमइ चिरं कम्मभण्डभरो ॥ ९७६६ ॥ अनुवाद - "कर्मरूपी भाण्ड (माल) से भरा हुआ जीवरूपी जहाज शुभ-अशुभ परिणामरूप हवा से प्रेरित होकर अत्यन्त भीषण संसार - महासागर में चिरकाल तक भ्रमण करता है । २११ जब शुभ और अशुभ दोनों परिणाम संसारसागर में भ्रमण कराने के हेतु हैं, तब इन दोनों परिणामों का अभावरूप परिणाम मोक्ष का हेतु है, यह स्वतः फलित होता है। उसी का नाम शुद्धोपयोग है। उसे भगवती - आराधनाकार ने 'शुद्धमनोयोग', २१२ 'मनोगुप्ति', २१३ 'विशुद्धात्मा', २१४ और 'भावशुद्धि / २१५ आदि शब्दों से भी अभिहित किया है। Jain Education International २१०. असुहपरिणामबहुलत्तणं च लोगस्स अदिमहल्लत्तं । जोणिबहुत्तं च कुणदि सुदुल्लहं माणुस जोणी ॥ १८६२ ॥ भगवती - आराधना । २११. “द्विविधाः शुभाशुभपरिणामा वाता यस्मिंस्तमतिभयङ्करं संसारमहोदधिं प्रविश्य जीवपोतः चिरकालं भ्रमति कर्मद्रविणभारः ।" विजयोदयाटीका / भगवती आराधना / गा. १७६६ । २१२. अवहट्ठ कायजोगे व विप्पओगे य तत्थ सो सव्वे । सुद्धे मणप्पओगे हो णिरुद्धज्झवसियप्पा॥ १६८९ ॥ भगवती - आराधना । २१३. जा रागादिणियत्ती मणस्स जाणाहि तं मणोगुत्तिं ॥ ११८१ ॥ भगवती आराधना । २१४. एवं सव्वत्थेसु वि समभावं उवगओ विसुद्धप्पा ॥ भगवती आराधना । २१५. समदीसु य गुत्तीसु य अभाविदा सीलसंजमगुणेसु । १६९० ॥ परतत्त य तत्ता अणाहिदा भावसुद्धीए । १९४७ ॥ भगवती - आराधना । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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