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________________ ४७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०६ ___ जीवो चरित्त दंसणणाणट्ठिउ तं हि ससमयं जाण। पुग्गलकम्मपदेसट्ठियं च तं जाण परसमयं॥ २॥ स.सा. । अनुवाद-"दर्शनज्ञानचारित्र में स्थित आत्मा (शुद्धात्मा) स्वसमय है और पुद्गलकर्मप्रदेशों में स्थित आत्मा (मोहरागद्वेषपरिणत अशुद्धात्मा) परसमय।" सम्प्रदायार्थक 'समय' शब्द के दो भेदों का उल्लेख करनेवाली गाथा इस प्रकार है णाणाजीवा णाणाकम्मं णाणाविहं हवे लद्धी। तम्हा वयणविवादं सगपरसमएहिं वजिजो॥ १५६॥ नि.सा. । अनुवाद-"लोक में नाना प्रकार के जीव हैं, नाना प्रकार के कर्म हैं तथा नाना प्रकार की लब्धियाँ हैं। अतः स्वसमयों (स्वधर्मियों) एवं परसमयों (परधर्मियों) के साथ वचनविवाद नहीं करना चाहिए।" कुन्दकुन्दकृत आचार्यभक्ति में भी सम्प्रदाय के अर्थ में स्वसमय और परसमय शब्द प्रयुक्त हुए हैं सग-पर-समयविदण्हू आगमहेदूहिं चावि जाणित्ता। . सुसमत्था जिणवयणे विणये सत्ताणुरूवेण॥ २॥ अनुवाद-"वे आचार्य स्वमत और परमत के ज्ञाता होते हैं, आगम और हेतुओं के द्वारा पदार्थों को जानकर जिनवचनों के प्ररूपण में तथा शक्ति अथवा प्राणियों के अनुरूप विनय करने में समर्थ होते हैं। प्रवचनसार की निम्नलिखित गाथा में परमतावलम्बी के अर्थ में 'परसमय' शब्द का प्रयोग किया गया है दव्वं सहावसिद्धं सदिति जिणा तच्चदो समक्खादा। सिद्धं तध आगमदो णेच्छदि जो सो हि परसमओ॥ २/६॥ अनुवाद-"द्रव्य स्वभाव से सिद्ध है। जिनेन्द्रदेव ने उसे स्वरूप से सत् कहा है। उसका यह स्वरूप आगम से निर्णीत है। जो ऐसा नहीं मानता, वह परसमय (परमतावलम्बी) है।" ये उदाहरण बतलाते हैं कि आचार्य कुन्दकुन्द ने स्वसमय और परसमय शब्दों का प्रयोग शुद्धात्मा और अशुद्धात्मा तथा स्वमत और परमत दोनों अर्थों में किया है। इससे सिद्ध है कि कुन्दकुन्द के पूर्व से ही उक्त शब्दों का प्रयोग दोनों अर्थों में होता आ रहा था। यदि कुन्दकुन्द ने उक्त शब्दों को स्वमत और परमत के अर्थों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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