________________
अ०१०/प्र.६
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४७७ में भी जीव के कर्तृत्व-अकर्तृत्व आदि का वैसा ही निरूपण किया है। इससे सिद्ध होता है कि कुन्दकुन्द इन समस्त ग्रन्थकारों से पूर्ववर्ती अर्थात् प्रथम शती ई० के मूलाचार-कर्ता आचार्य वट्टकेर से भी पूर्ववर्ती हैं।
'स्वसमय', 'परसमय' शब्दों का नवीनार्थ में प्रयोग
प्रो० ढाकी का तीसरा अन्तरंग हेतु-'स्वसमय' और 'परसमय' ये शब्द बहुत पहले से स्वमत और परमत के अर्थ में प्रसिद्ध थे। किन्तु कुन्दकुन्द ने इनकी परिभाषा पूर्णतः बदल दी। उन्होंने ''स्वसमय' शब्द का प्रयोग 'आत्मा से सम्बद्ध पदार्थ'
और 'परसमय' का प्रयोग ‘आत्मा से भिन्न पदार्थ के अर्थ में प्रचलित कर दिया। इन शब्दों की ऐसी परिभाषा दक्षिण के जैनग्रन्थकारों ने भी निर्दिष्ट नहीं की है।०४
निरसन आत्मा के अर्थ में भी 'समय' शब्द का प्रयोग परम्परागत
कुन्दकुन्द-साहित्य में 'समय' शब्द छह अर्थों में प्रयुक्त हुआ है-१.आत्मा,२०५ २. परमागम, जैनसिद्धान्त, शास्त्र या जिनमत२०६ ३.सम्प्रदाय२०७ ४. पदार्थ सामान्य,२०८ ५. पाँच अस्तिकायों का समूह,२०९ और ६. कालांश।
आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मार्थक 'समय' शब्द और सम्प्रदायार्थक 'समय' शब्द दोनों के स्वसमय और परसमय, इन दो-दो भेदों का निरूपण किया है। आत्मार्थक 'समय' शब्द के भेद निम्न गाथा में वर्णित हैं
नण
२०४. “As its corolary as though, Kundakundacarya completely redifines the terms
svasamaya and parasamaya, the terms which for long had been understood as the 'doctrine of one's own sect' and ' the doctrine of the other's sect.' According to Kundakundācārya, svasamaya is the one which ralates to ātman, the parasamaya meant anything outside ātman including one's body. This is an absolutely diffenent way of looking at the connotation of the terms, indeed not referred to by even Southern Jaina Writers.” Aspects
of Jainology, Vol. III , pp.198,199. २०५. आत्मख्याति एवं तात्पर्यवृत्ति / समयसार / गा.१ । २०६. प्रवचनसार / गा.२ / ९६,३/७१। २०७. नियमसार / गा.१५६ तथा कुन्दकुन्दकृत आचार्यभक्ति / गा. २।। २०८. "समयशब्देनात्र सामान्येन सर्व एवार्थोऽभिधीयते।" आत्मख्याति / समयसार / गा.३ । २०९. “समवाओ पंचण्हं समउत्ति जिणुत्तमेहिं पण्णत्तं ॥३॥" पञ्चास्तिकाय।
For Personal & Private Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org