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४७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र०६
यह कुन्दकुन्द द्वारा आविष्कृत नया सिद्धान्त नहीं है । ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में रचित कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के अतिरिक्त यह सिद्धान्त प्रथम शती ई० से लेकर आठवीं शती ई० तक के 'मूलाचार', 'तत्त्वार्थसूत्र', ‘तिलोयपण्णत्ती', 'इष्टोपदेश', 'परमात्मप्रकाश', 'वरांगचरित', विजयोदयाटीका, धवलाटीका आदि में भी मिलता है। इनमें आत्मा को जो द्रव्यदृष्टि या लक्षण की दृष्टि से मात्र चैतन्यस्वरूप या ज्ञान - दर्शन - लक्षणात्मक बतला हुए पौद्गलिक देह - कर्मादि से रहित प्रतिपादित किया गया है, वह निश्चयनय से जीव के देह - कर्मादि के अकर्त्ता होने का भी प्रतिपादन है । और निश्चयनय से देहकर्मादि का अकर्त्ता - अभोक्ता प्रतिपादित किये जाने पर व्यवहारनय से उसका कर्त्ता - भोक्ता होना स्वतः सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त उपर्युक्त ग्रन्थों में स्पष्ट शब्दों में भी जीव के कर्तृत्व-अकर्तृत्व का प्रतिपादन किया गया है। यथा तिलोयपण्णत्ती ( द्वितीय शती ई०) की निम्नलिखित गाथा में जीव को देह का अकर्त्ता कहा गया है
णाहं पुग्गलमइओ ण दे मया पुग्गला कदा पिंडं । तम्हा हि ण देहो हं कत्ता वा तस्स देहस्स ॥ ९/३४॥
छठी शती ई० के जोइन्दुदेव ने भी परमात्मप्रकाश में जीव को निश्चयनय से बन्ध और मोक्ष का अकर्त्ता कहा है
बंधु वि मोक्खु वि सयलु जिय जीवहँ कम्मु जणेइ । अप्पा किंपि वि कुणइ णवि णिच्छउ एउँ भणेइ ॥
१ / ६५ ॥ अनुवाद - " हे जीव ! जीवों के बन्ध और मोक्ष सबको कर्म करता है, कुछ भी नहीं करता, ऐसा निश्चयनय का कथन है । "
आत्मा
इस प्रकार जब कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के अतिरिक्त प्रथम शती ई० से लेकर आठवीं शती ई० तक के अन्य ग्रन्थों में भी जीव के कर्तृत्व-अकर्तृत्व का वैसा ही निरूपण मिलता है, जैसा कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में, तब ढाकी जी का यह कथन सत्य सिद्ध नहीं होता कि मध्ययुग के पूर्व तक किसी जैन विद्वान् ने आत्मा के कर्तृत्व- भोक्तृत्व की, वैसी व्याख्या नहीं की, जैसी कुन्दकुन्द ने की है। अतः इस प्रकार की व्याख्या को मध्ययुग के पश्चात् विकसित मानकर कुन्दकुन्द को आठवीं शती ई० में उत्पन्न सिद्ध करने का प्रयास असत्याश्रित प्रयास है।
हाँ, यह सत्य है कि कुन्दकुन्द के पूर्व किसी ग्रन्थकार ने निश्चय - व्यवहार का आश्रय लेकर जीव के कर्तृत्व-अकर्तृत्व, भोक्तृत्व - अभोक्तृत्व आदि का निरूपण नहीं किया। वह सर्वप्रथम आचार्य - परम्परा से प्राप्त उपदेश के आधार पर कुन्दकुन्द के द्वारा किया गया । किन्तु ईसा की पहली शताब्दी से लेकर आठवीं शताब्दी तक के तथा उसके भी बाद के ग्रन्थकारों ने कुन्दकुन्द का अनुसरण कर अपने ग्रन्थों
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