________________
अ०१०/प्र०६
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४७५ जासु ण वण्णु ण गंधुरसु जासु ण सद्दु ण फासु। जासु ण जम्मणु मरणु णवि णाउ णिरंजणु तासु॥ १/१९॥ जासु ण कोहु ण मोहु मउ जासु ण माय ण माणु।
जासु ण ठाणु ण झाणु जिय सो जि णिरंजणु जाणु॥१/२०॥ 'वरांगचरित' में, जो सातवीं शती ई० की रचना है, 'नियमसार' की 'एगो मे सासदो आदा' इत्यादि गाथा संस्कृत पद्य के रूप में मिलती है। उसमें आत्मा को पुद्गलात्मक शरीर, द्रव्यकर्म एवं भावकर्म से रहित वर्णित किया गया है। उक्त पद्य पूर्व में उद्धृत किया जा चुका है।
ईसा की आठवीं शती (पूर्वार्ध) के अपराजित सूरि ने भगवती-आराधना की विजयोदया टीका (गा.४) में तथा वीरसेन स्वामी ने धवलाटीका (पु.३ /१,२,१) में समयसार की 'अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसइं' गाथा (४९) उद्धृत करते हुए आत्मा का रसादि-पुद्गलधर्मों से रहित होना स्वीकार किया है।
इस प्रकार जब हम देखते हैं कि प्रथम शती ई० के वट्टकेर (मूलाचारकर्ता) से लेकर आठवीं शती ई० तक के वीरसेन स्वामी आदि अनेक आचार्यों ने आत्मा को द्रव्यदृष्टि से कर्मरज-असम्पृक्त प्रतिपादित किया है, तब "आठवीं शताब्दी ई० के गौडपाद की कारिकाओं को देखकर कुन्दकुन्द ने आत्मा के विषय में वेदान्तिक दृष्टि अपनायी होगी" इस कथन की असत्यता तुरन्त स्पष्ट हो जाती है।
तथा कुन्दकुन्द ने निश्चयनय से उपादान को 'कर्ता' शब्द से अभिहित किया है और व्यवहारनय से निमित्त को।२०२ निश्चयनय से अर्थात् उपादान की दृष्टि से आत्मा पुद्गलकर्मों के रूप में परिणमन नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसा होने पर आत्मा के चेतन होने से पुद्गल कर्मों के भी चेतन होने का प्रसंग आयेगा, जो पुद्गल के लक्षण के विरुद्ध है। इसलिए आत्मा निश्चयनय से पुद्गल कर्मों का कर्ता नहीं हो सकता। कर्त्ता न होने से उनके फल का भोक्ता भी नहीं हो सकता। जीव के शुभाशुभ भावों के निमित्त से पुद्गलद्रव्य स्वयं पुद्गलकर्मों के रूप में परिणमित हो जाता है, इसलिए जीव को व्यवहारनय से पुद्गलकर्मों का कर्ता कहा जाता है।०३ तथा पुद्गलकर्मों के उदय के निमित्त से जीव के परिणाम सुखदुःखात्मक हो जाते हैं। इस अपेक्षा से वह व्यवहारनय से पुद्गलकर्मों का भोक्ता कहलाता है। यह जिनेन्द्रदेव का उपदेश है। इसे ही गुरुपरम्परा से प्राप्त कर कुन्दकुन्द ने समयसार में प्ररूपित किया है। २०२. समयसार / गाथा ९८, १००, १०२, १०५, १०७। २०३. जीवम्हि हेदुभूदे बंधस्स दु पस्सिदूण परिणाम।
जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उवयारमत्तेण ॥ १०५॥ समयसार।
Jain Education Interational
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org