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४७४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०६ है।२०° और इस तरह स्पष्ट किया गया है कि लक्षण की दृष्टि से अर्थात् निश्चयनय से आत्मा पौद्गलिक शरीर, पौद्गलिक ज्ञानावरणादि कर्मों तथा तन्निमित्तक मोहरागादिभावों से रहित है।
द्वितीय शती ई० की 'तिलोयपण्णत्ती' में कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से अनेक गाथाएँ ली गयी हैं, जिनमें आत्मा को कर्मरज तथा देहादि से भिन्न निरूपित किया गया है। इसके अनेक उदाहरण प्रथम प्रकरण के (शीर्षक क्र.५) में देखे जा सकते हैं। पाँचवीं सदी ई० के पूज्यपाद देवनन्दी ने कुन्दकुन्द की “एओ मे सस्सओ अप्पा' (भावपाहुड / ५९) इत्यादि गाथा का संस्कृत-रूपान्तरण कर इष्टोपदेश में आत्मा को एक, शुद्ध, ज्ञानी और निर्मम (परद्रव्यसम्बन्ध से रहित) प्रतिपादित किया है, और कहा है कि इसके अतिरिक्त जितने भी भाव आत्मा के साथ जुड़े दिखायी देते हैं, वे आत्मा से सर्वथा भिन्न हैं
एकोऽहं निर्ममः शुद्धो ज्ञानी योगीन्द्रगोचरः।
बाह्याः संयोगजा भावा मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा॥ २७॥ इष्टोपदेश के एक अन्य श्लोक में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की है कि जीव अलग है और पुद्गल अलग है
जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य इत्यसौ तत्त्वसङ्ग्रहः।
यदन्यदुच्यते किञ्चित्सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः॥ ५०॥ छठी शताब्दी ई०२०१ के जोइन्दुदेव ने परमात्मप्रकाश में स्वलक्षण की दृष्टि से आत्मा को देह से भिन्न बतलाया है
देह-विभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ।
परमसमाहि-परिट्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ॥ १/१४॥ अनुवाद-"जो परमसमाधि में स्थित होकर देह से भिन्न ज्ञानमय परमात्मा के दर्शन करता है, वही पण्डित (अन्तरात्मा) है।"
तथा 'समयसार' की गाथाओं (५०-५५) का अनुकरण करते हुए उन्होंने परमात्मप्रकाश में जीव के स्वभाव को वर्ण, गन्ध, रस, शब्द, क्रोध, मोह, मद, माया, मान आदि से रहित बतलाया है
२००. "स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः।" त.सू./ २ / २३। २०१. परमात्मप्रकाश / इण्ट्रोडक्शन / ए. एन. उपाध्ये / पृ.७५ तथा तीर्थंकर महावीर और उनकी
आचार्य परम्परा / खं.२/ पृ.२४८ ।
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