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________________ अ०१०/प्र०६ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४७३ वर्ष पहले उनके गुरु गौडपाद द्वारा रचित कारिकाओं के माध्यम से प्रसिद्ध हो चुका था। संभव है, वे कुन्दकुन्द की दृष्टि में आयी हों और उन्होंने आत्मा के विषय में वेदान्तिक दृष्टि कुछ संशोधित करके अपना ली हो।९८ निरसन कुन्दकुन्द द्वारा श्रुतकेवली के उपदेश का अनुसरण कुन्दकुन्द ने आत्मद्रव्य को, चाहे वह संसारावस्था में हो या सिद्धावस्था में, लक्षण की दृष्टि से मोहरागादि भावों, पुद्गलकर्मों और देह से भिन्न शुद्ध चैतन्यस्वरूप बतलाया है और यह श्रुतकेवली का उपदेश है, कुन्दकुन्द के अपने विचार नहीं। आत्मद्रव्य का लक्षण यही है। मोहरागादि भावों, पुद्गलकर्मों तथा देह से युक्त 'अशुद्ध चैतन्य' आत्मा का लक्षण नहीं हो सकता, क्योंकि चैतन्य की ऐसी अवस्था तीनों कालों में नहीं पायी जाती। मुक्त आत्मा में इसका अभाव होता है। तथा यदि मोहरागादि आत्मा के त्रैकालिक स्वभाव हों, तो आत्मा की मुक्ति संभव नहीं है, क्योंकि कोई भी द्रव्य अपने त्रैकालिक स्वभाव से मुक्त नहीं हो सकता। अतः आत्मद्रव्य का वही लक्षण है, जो कुन्दकुन्द ने बतलाया है। और वह जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट है, कुन्दकुन्द द्वारा प्रतिपादित नया सिद्धान्त नहीं। तथा ईसापूर्व द्वितीय शताब्दी के प्राचीनतम ग्रन्थ कसायपाहुड से लेकर वर्तमान काल तक के किसी भी ग्रन्थ में कर्मरज-सम्पृक्त चैतन्य को आत्मा का लक्षण नहीं बतलाया गया। प्रथम शती ई० के उत्तरार्ध में रचित 'मूलाचार' में कुन्दकुन्द के ही शब्दों (भावपाहुड / गा.५९) को ज्यों का त्यों अपनाकर आत्मद्रव्य को मात्र ज्ञानदर्शन-लक्षणवाला बतलाया गया है और मोहरागादिभावों, पुद्गलकर्मों तथा पौद्गलिक शरीर को आत्मा से भिन्न सांयोगिक भाव कहा गया है। यथा एओ मे सस्सओ अप्पा णाणदंसणलक्खणो। __ सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा॥ ४८॥ मूला.। तत्त्वार्थसूत्र (प्रथम-द्वितीय शती ई०) में जीव के चैतन्यपरिणामरूप उपयोग को जीव का लक्षण१९९ तथा स्पर्श, रस, गन्ध एवं वर्ण को पुद्गल का धर्म कहा गया 882. “The new Veādānta doctrine about ātman was already known at least 50 years before Sankarācārya (A.D. 780-812), through the kārikās of his grand preceptor Gaudapāda. May be, Kundakundācārya has seen these and adopted the Vedāntic way of looking at self, but in a modified way.” Aspects of Jainology, Vol. III, p.198. १९९. "उपयोगो लक्षणम्"त.सू./२।८।"जीवत्वं चैतन्यमित्यर्थः"स.सि/२/७।"चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः" स.सि./२/८। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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