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________________ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४७१ अ०१० / प्र०६ का पूज्यपाद देवनन्दी का समय पाँचवी शताब्दी ई० है, यह पूर्व में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है। उन्होंने 'समाधितन्त्र' और 'इष्टोपदेश' में 'व्यवहार' शब्द उल्लेख कर और उसके द्वारा प्रतिपक्षी 'निश्चय' का आक्षेप कर मोक्षमार्ग के आभ्यन्तर और बाह्य रूपों में साध्यसाधकभाव का प्ररूपण किया है। जैसे व्यवहारे सुषुप्तो यः स जागर्त्यात्मगोचरे । जागर्ति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्तश्चात्मगोचरे ॥ ७८॥ स.तन्त्र। अनुवाद- " जो व्यवहार में सोता है (व्रताव्रत दोनों से विमुख होता है) वह आत्मस्वभाव में जागता है ( शुद्धोपयोग में लीन होता है) और जो व्यवहार में जागता है, वह आत्मस्वभाव ( शुद्धोपयोग ) में सोता है ( उससे विमुख होता है ) ।" यहाँ पूज्यपादस्वामी ने व्रतों में प्रवृत्ति को 'व्यवहार' कहा है, और इससे यह द्योतित किया है कि आत्मस्वभाव में स्थित होना 'निश्चय' है । अर्थात् वे शुद्धोपयोग को निश्चयनय से मोक्षमार्ग मानते हैं । 'इष्टोपदेश' में भी पूज्यपादस्वामी ने व्रतरूप शुभप्रवृत्ति को 'व्यवहार' शब्द से अभिहित किया है आत्मानुष्ठाननिष्ठस्य व्यवहारबहिः स्थितेः । जायते परमानन्दः कश्चिद्योगेन योगिनः ॥ ४७ ॥ इष्टोपदेश । अनुवाद - " जो योगी व्यवहार ( व्रतादि शुभ प्रवृत्तियों) से बाहर होकर स्वयं को आत्मा में ही स्थापित करता है ( शुद्धोपयोग में स्थित होता है), उसे इस योग (शुद्धोपयोग या ध्यान) से परमानन्द की अनुभूति होती है। इस प्रकार पाँचवी शती ई० के पूज्यपाद देवनन्दी ने भी 'व्यवहार' शब्द का प्रयोग कर 'निश्चय' शब्द का आक्षेप किया है और उन दोनों के द्वारा मोक्ष के आभ्यन्तर और बाह्य उपायों में साध्यसाधकभाव संकेतित किया है। Jain Education International छठी शती ई० के 'परमात्मप्रकाश' में भी निश्चय और व्यवहार नयों से आत्मादि पदार्थों के परमार्थ और अपरमार्थ रूपों का प्रतिपादन किया गया है। इसके उदाहरण प्रथम प्रकरण (शीर्षक क्र. ७) में दिये गये हैं । 'वरांगचरित' (७वीं शती ई० पूर्वार्ध) तथा धवला एवं जयधवला (८वीं शती ई० उत्तरार्ध) में कुन्दकुन्द की गाथाओं का जो संस्कृतीकरण किया गया है या उद्धरण दिये गये हैं, उनमें भी भूतार्थनय या निश्चयनय से जीवादि तत्त्वों के परमार्थरूप का प्ररूपण मिलता है। इनके भी उदाहरण प्रथम प्रकरण ( शीर्षक क्र. ८ एवं १०) में उपलब्ध हैं । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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