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४७० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०६ शुद्धनय, भूतार्थ (नय) और परमार्थ (नय), ये निश्चयनय के पर्यायवाची हैं।१९४ अतः प्रथम शताब्दी ई० की भगवती-आराधना में भी निश्चयनय से मिथ्यादृष्टि के ज्ञान को अज्ञान कहकर ज्ञान के सम्यक् स्वरूप का विवेचन किया गया है। प्रथम शती ई० के ही मूलाचार में समयसार की यह गाथा उपलब्ध होती है
भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च। .
आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ॥ २०३॥ मूला. । इसमें भी जीव की परसापेक्ष पर्यायों में से एक शुद्ध जीवद्रव्य का निश्चय कराने के लिए निश्चयनय ( भूतार्थनय ) का प्रयोग किया गया है।
मूलाचार की ही निम्नलिखित गाथा में निश्चयनय के पर्यायभूत 'परमार्थ' शब्द का प्रयोग करते हुए कहा गया है कि जो साधु आर्यिकाओं की वसतिका में रहता है, उसकी दो प्रकार से निन्दा होती है : व्यवहाररूप से और परमार्थरूप से
होदि दुगुंछा दुविहा ववहारदो तधा य परमटे।
पयदेण य परमढे ववहारेण य तहा पच्छा॥ ९५५॥ आर्यिकाओं की वसति में रहने से साधु का जो व्रतभंग होता है, वह मुख्यरूप से निन्दा है और जो लोकापवाद होता है, वह व्यवहाररूप से निन्दा कहलाती है।९५ इस प्रकार यहाँ निश्चय और व्यवहार नयों के द्वारा निन्दा के मुख्य और गौणरूपों का विवेचन किया गया है।
द्वितीय शताब्दी ई० में रचित तिलोयपण्णत्ती में ज्ञानावरणादि घातिकर्मों के क्षयहेतुओं की साध्यसाधकरूप द्विविधता तथा नवलब्धियों की बाह्याभ्यन्तररूप द्विविधता का संकेत निश्चय और व्यवहार नयों के द्वारा किया गया है। यथा
णाणावरणप्पहुदी णिच्छय-ववहारपाय अतिसयए। संजादेण अणंतं णाणेणं दंसणेण सोक्खेणं॥ १/७१ ॥ विरिएण तहा खाइय-सम्मत्तेणं पि दाण-लाहेहिं। भोगोपभोग-णिच्छय-ववहारेहिं च परिपुण्णो॥ १/७२ ॥
१९४: क- "भूतार्थेन निश्चयनयेन शुद्धनयेन।" तात्पर्यवृत्ति / समयसार / गा.१३ ।
ख-मोत्तूण णिच्छयटुं ववहारेण विदुसा पवटुंति।
परमट्ठमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खओ विहिओ॥ १५६॥ समयसार। १९५. "तत्रार्यिकोपाश्रये वसतः साधोर्द्विप्रकारापि जुगुप्सा, व्यवहाररूपा तथा परमार्था च। लोका
पवादो व्यवहाररूपा, व्रतभङ्गश्च परमार्थतः।" आचारवृत्ति / मूलाचार / गा.९५५ ।
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