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________________ अ०१०/प्र०६ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४६९ स्वाभाविक है। विच्छेद का क्रम तभी रुका, जब आगमों को लिखित रूप दे दिया गया।" (डॉ.सा.म.जै.अभि.ग्र./ पृ.३९)। डॉक्टर सा० आगे लिखते हैं-"अर्धमागधी आगम-साहित्य की विषयवस्तु मुख्यतः उपदेशपरक, आचारपरक एवं कथापरक है। भगवती के कुछ अंश, प्रज्ञापना, अनुयोगद्वार जो कि अपेक्षाकृत परवर्ती हैं, को छोड़कर उनमें प्रायः गहन दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक चर्चाओं का अभाव है। --- इसके विपरीत शौरसेनी आगमों में आराधना और मूलाचार को छोड़कर लगभग सभी ग्रन्थ दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक चर्चा से युक्त हैं। वे परिपक्व दार्शनिक विचारों के परिचायक हैं। गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त की वे गहराइयाँ, जो शौरसेनी आगमों में उपलब्ध हैं, अर्धमागधी आगमों में प्रायः उनका अभाव ही है। कुन्दकुन्द के समयसार के समान उनमें सैद्धान्तिक दृष्टि से अध्यात्मवाद के प्रतिस्थापन का भी कोई प्रयास परिलक्षित नहीं होता।" (डॉ.सा.म.जै.अभि.ग्र./ पृ.३९)। इस वक्तव्य से मेरे इस मत की पुष्टि होती है कि श्वेताम्बरपरम्परा में द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग का अध्यात्मपक्ष सुरक्षित नहीं रह पाया। उसमें गुणस्थान-सिद्धान्त तक का अभाव है, इसलिए निश्चय और व्यवहार नयों के गहन एवं विस्तृत प्रयोग के लिए श्वेताम्बरसाहित्य में विषय ही उपलब्ध नहीं है। तब सिद्धसेन दिवाकर और मल्लवादी क्या कर सकते थे? किन्तु दिगम्बर-परम्परा में द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग का अध्यात्मपक्ष सुरक्षित रहा और श्रुतकेवली भद्रबाहु के मुखारविन्द से निःसृत हो गुरुपरम्परा से कुन्दकुन्द को प्राप्त हुआ, जिसे उन्होंने यथावत् अपने ग्रन्थों में निबद्ध कर दिया। इसलिए कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में आत्मा के निरुपाधिक और सोपाधिक रूपों एवं मोक्षमार्ग के साध्य-साधक पक्षों का निश्चय और व्यवहार नयों से गहन एवं विस्तृत विवेचन हुआ है। यह कुन्दकुन्द के परवर्ती होने और सिद्धसेन तथा मल्लवादी के पूर्ववर्ती होने का प्रमाण नहीं है, अपितु श्वेताम्बर-परम्परा में निश्चय-व्यवहार नयों के प्रयोगयोग्य आध्यात्मिक विषयवस्तु के अभाव एवं दिगम्बर-परम्परा में उसके सद्भाव का प्रमाण है। तथा सिद्धसेन और मल्लवादी से बहुत प्राचीन अन्य ग्रन्थों में भी आत्मादि तत्त्वों के व्यवहार और परमार्थ रूपों का व्यवहार और निश्चय नयों से निरूपण उपलब्ध होता है। उदाहरणार्थ प्रथम शती ई० की भगवती-आराधना में कहा गया है कि शुद्धनय से देखनेवाले ज्ञानी मिथ्यादृष्टि के ज्ञान को अज्ञान कहते हैं सुद्धणया पुण णाणं मिच्छादिट्ठिस्स वेंति अण्णाणं । तम्हा मिच्छादिट्ठी णाणस्साराहओ णेव॥ ५॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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