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४६८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र०६ से परिचित थे, तथापि सिद्धसेन दिवाकर (छठी शती ई०) और मल्लवादी (छठीसातवीं शती ई०) ने उसका प्रयोग गहराई और विस्तार से नहीं किया। (Asp. of Jaino., Vol. III, p.198)। अर्थात् कुन्दकुन्द ने उसका प्रयोग गहराई और विस्तार से किया है, अतः वे सिद्धसेन और मल्लवादी से परवर्ती हैं।
निरसन श्वेताम्बरमत में निश्चयनय के गहन-विस्तृत प्रयोग का अनवसर
पहली बात तो यह है कि सिद्धसेन दिवाकर और मल्लवादी, कुन्दकुन्द से पूर्ववर्ती नहीं थे। दूसरे, यदि उन्होंने निश्चयनय का प्रयोग गहराई और विस्तार से अर्थात् आत्मा के निरुपाधिक और औपाधिक रूपों तथा मोक्षमार्ग के साध्य-साधक पक्षों के निरूपण में नहीं किया, तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि श्वेताम्बरपरम्परा में द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग का अध्यात्मपक्ष सुरक्षित नहीं रह पाया। इसलिए उनका उपलब्ध आगमसाहित्य उससे शून्य है। डॉ० सागरमल जी ने भी लिखा है
"अंग-आगमों के विच्छेद की चर्चा श्वेताम्बरपरम्परा में भी चली है।--- मेरी दृष्टि में विच्छेद का तात्पर्य उसके कुछ अंशों का विच्छेद ही मानना होगा। यदि हम निष्पक्ष दृष्टि से विचार करें, तो ज्ञात होता है कि श्वेताम्बर-परम्परा में भी जो अंगसाहित्य आज अवशिष्ट है, वह उसी रूप में तो नहीं है, जिस रूप में उसकी विषयवस्तु का उल्लेख स्थानांग, समवायांग, नन्दीसूत्र आदि में हुआ है। यह सत्य है कि न केवल पूर्व-साहित्य का, अपितु अंगसाहित्य का भी बहुत कुछ अंश विच्छिन्न हुआ है। आज आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का सातवाँ महापरिज्ञा नामक अध्याय अनुपलब्ध है। भगवतीसूत्र, ज्ञातृधर्मकथा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाकदशा आदि ग्रन्थों की भी बहुत कुछ सामग्री विच्छिन्न हुई है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। स्थानांग में दस दशाओं की जो विषयवस्तु वर्णित है, वह उनकी वर्तमान विषयवस्तु से मेल नहीं खाती है। उनमें जहाँ कुछ प्राचीन अध्ययन विलुप्त हुए हैं, वहीं कुछ नवीन सामग्री समाविष्ट भी हुई है। अन्तिम वाचनाकार देवर्द्धिगणी ने स्वयं भी इस तथ्य को स्वीकार किया है कि मुझे जो भी त्रुटित सामग्री मिली है, उसको ही मैंने संकलित किया है। अतः आगमग्रन्थों के विच्छेद की जो चर्चा है, उसका अर्थ यही लेना चाहिए कि यह श्रुतसम्पदा यथावत् रूप में सुरक्षित नहीं रह सकी। वह आंशिकरूप से विस्मृति के गर्भ में चली गयी। क्योंकि भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् लगभग एक हजार वर्ष तक यह साहित्य मौखिक रहा और मौखिक परम्परा में विस्मृति
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