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४६६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र.६
कुन्दकुन्द द्वारा छठी शती ई. के मूलाचार का अनुकरण
उक्त विद्वान् आगे लिखते हैं कि वट्टकेरकृत 'मूलाचार' यापनीय-परम्परा का ग्रन्थ है और उसकी रचना छठी शती ई० के उत्तरार्ध में हुई थी, क्योंकि उसमें छठी शती के आरम्भ में रचित श्वेताम्बर-नियुक्तियों की गाथाएँ मिलती हैं। उसमें जो कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की गाथाएँ उपलब्ध होती हैं, वे उस समय प्रक्षिप्त की गयी हैं, जब वह यापनीयों के माध्यम से दिगम्बरों के पास आया। मूलाचार की एक गाथा में प्रतिक्रमणादि को अमृतकुम्भ कहा गया है। कुन्दकुन्द ने इसका अनुकरण कर समयसार की वह गाथा रची है, जिसमें उनको विषकुंभ संज्ञा दी गयी है। इससे सिद्ध होता है कि कुन्दकुन्द मूलाचार के रचनाकाल छठी शताब्दी ई० के बाद उत्पन्न हुए थे। (Asp. of Jaino.,Vol. III, p.196)।
निरसन
'मूलाचार' में कुन्दकुन्द की गाथाएँ कुन्दकुन्द ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में हुए थे और मूलाचार की रचना उनके पश्चात् प्रथम शती ई० के उत्तरार्ध में हुई थी। तथा मूलाचार यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु शत-प्रतिशत दिगम्बरग्रन्थ है। ( देखिये, 'मूलाचार' नामक अध्याय )। उसमें श्वेताम्बरनियुक्तियों की गाथाएँ नहीं हैं, बल्कि उसकी गाथाएँ श्वेताम्बर-नियुक्तियों में हैं। यतः वह दिगम्बरग्रन्थ ही है, अतः वह यापनीयों के माध्यम से दिगम्बरों के पास आया है, इस कल्पना के लिए स्थान नहीं है। इसलिए उसमें कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की गाथाएँ प्रक्षिप्त किए जाने की कल्पना भी निराधार है। मूलाचार के कर्ता ने स्वयं उन्हें कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से ग्रहण किया है, इसका सोदाहरण प्रतिपादान प्रथम प्रकरण में किया जा चुका है।
कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में छठी शती ई. के श्वेताम्बर ग्रन्थों की गाथाएँ
मान्य विद्वान् का अगला तर्क यह है कि कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में चौथी शती ई० से लेकर छठी शती ई० के मध्य रचे गये श्वेताम्बर-प्रकीर्णक ग्रन्थों की गाथाएँ मिलती हैं। उदाहरणार्थ, ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी के महाप्रत्याख्यान नामक प्रकरणग्रन्थ की जैनमहाराष्ट्री में निबद्ध एक गाथा और विमलसूरि (४७८ ई०) के पउमचरिय की वैसी
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