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अ०१०/प्र०६
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४६५ सुख के लिए आचेलक्यादि मूलगुणों का परित्याग कर मूलाचार से च्युत हो गया, वस्त्र पहनने लगा, कम्बल ओढ़ने-बिछाने लगा, पात्र में भिक्षा लाकर उपाश्रय में बैठकर भोजन करने लगा, अश्रावकों के भी घर से भिक्षा लेने लगा, यहाँ तक कि मांस से भी उदरपूर्ति करने लगा। जब ईसापूर्व ४६५ में शिथिलाचार मांसभक्षण तक पहुँच सकता है, तब आचार्य कुन्दकुन्द के काल में अर्थात् ईसापूर्व और ईसोत्तर प्रथम शताब्दी में कुछ मुनियों का नियतवास और कृषि-वाणिज्यादि कर्मों में प्रवृत्त हो जाना आश्चर्य की बात नहीं है। अन्य तीर्थंकरों के काल में भी ऐसी प्रवृत्तियोंवाले साधु रहे होंगे। इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि पासत्थ-कुसीलादि साधुओं का अस्तित्व अनादिकाल से है। पूर्ववर्णित साहित्यिक और शिलालेखीय प्रमाणों से सिद्ध है कि आचार्य कुन्दकुन्द का अस्तित्व ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में था। उस समय के आचार्य ने जब ऐसे मुनियों की निन्दा की है, तब यह तो प्रमाणित ही है कि उस प्राचीनकाल में भी उक्त प्रकार के मुनियों का अस्तित्व था। अतः केवल छठी शताब्दी ई० में या उसके बाद ऐसे मुनियों का उद्भव मानना प्रमाणों की अवहेलना कर स्वाभीष्ट मत का आरोपण करना है। इस ऐतिहासिक तथ्य को देखते हुए लिंगप्राभूत में कृषिवाणिज्यादि करनेवाले शिथिलाचारी मुनियों के वर्णन से यह सिद्ध नहीं होता कि आचार्य कुन्दकुन्द छठी शताब्दी ई० के बाद उत्पन्न हुए थे।
छठी शती ई.-रचित षट्खण्डागम पर कुन्दकुन्द की टीका पूर्वोक्त विद्वान् का कथन है कि इन्द्रनन्दी के अनुसार कुन्दकुन्द ने षट्खण्डागम पर परिकर्म नामक टीका लिखी थी। षट्खण्डागम का रचनाकाल पाँचवीछठी शताब्दी ई० है। अतः कुन्दकुन्द उसके बाद हुए हैं। (Asp. of Jaino., Vol.III, p.196)।
निरसन षट्खण्डागम ईसापूर्व प्र. श. के पूर्वार्ध की रचना पूर्व प्रस्तुत साहित्यिक एवं शिलालेखीय प्रमाणों से सिद्ध है कि आचार्य कुन्दकुन्द ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में उत्पन्न हुए थे और उन्होंने षट्खण्डागम पर टीका लिखी थी। अतः षट्खण्डागम की रचना कुन्दकुन्द से पूर्व अर्थात् ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध में हुई थी, यह स्वतः सिद्ध होता है।
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