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४६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०६ ५. यदि 'एलवाचार्यगुरु' शब्द को कुन्दकुन्दाचार्य का पर्यायवाची माना जाय, तो एलवाचार्यगुरु कुन्दकुन्दान्वय में उत्पन्न सिद्ध नहीं हो सकते, क्योंकि किसी भी आचार्य का अपने ही अन्वय में उत्पन्न होना संभव नहीं है। यदि प्रो० ढाकी यह मानते हों कि कुन्दकुन्दान्वय आचार्य कुन्दकुन्द के नाम से प्रसिद्ध नहीं हुआ, अपितु 'कौण्डकुन्द' नामक ग्राम के नाम से प्रसिद्ध हुआ है, तो ऐसा ही हुआ है, इसे सिद्ध करनेवाला कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, जब कि उमास्वाति आदि आचार्यों के कुन्दकुन्दाचार्य के अन्वय में उद्भूत होने का वर्णन अनेक शिलालेखों में मिलता है। सर्वप्रथम तो उसी विजयनगर-दीपस्तम्भलेख में मिलता है, जिसमें कुन्दकुन्दाचार्य के पर्यायवाची 'एलाचार्य' नाम का उल्लेख है, और जिसके अर्वाचीन होने पर भी प्रो० ढाकी ने यह माना है कि भले ही वह लेख अर्वाचीन हो, पर संभव है कि उसमें कुन्दकुन्द
और एलाचार्य के अभिन्न होने का उल्लेख उस समय प्रवर्तमान लिखित या श्रुतिगत परम्परा के आधार पर किया गया हो।९°इसी युक्ति से यह भी मान्य है कि उक्त दीपस्तम्भलेख के लेखनकाल में लिखित या श्रुति के रूप में यह प्रमाण उपलब्ध था कि कुन्दकुन्दान्वय का प्रचलन आचार्य कुन्दकुन्द के नाम से हुआ है और उसमें अनेक मुनिरत्न उत्पन्न हुए हैं, इसीलिए उक्त लेख में इसका उल्लेख किया गया है।१९१ इसके अतिरिक्त श्रवणबेल्गोल के ४०, ४२, ४३, ४७, १०५ और १०८ क्रमांकवाले शिलालेखों (जै.शि.सं. / मा.च./ भा.१) में भी कहा गया है कि आचार्य कुन्दकुन्द के अन्वय में उमास्वाति का उद्भव हुआ था। 'कौण्डकुण्ड' ग्राम के नाम से केवल आचार्य कुन्दकुन्द का नाम प्रचलित हुआ है और कुन्दकुन्दान्वय की धारा उनसे ही प्रवाहित हुई है। उनके व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व की ऊँचाई और असाधारण प्रतिष्ठा के कारण ऐसा होना स्वाभाविक ही था। अतः जहाँ एलवाचार्यगुरु के कुन्दकुन्दान्वय में उत्पन्न होने का उल्लेख हो, वहाँ 'एलवाचार्यगुरु' नाम आचार्य कुन्दकुन्द का वाचक हो ही नहीं सकता, क्योंकि किसी भी आचार्य का अपने ही अन्वय में उत्पन्न होना संभव
१९०. “In point of fact the Vijayanagar lamp-pillar inscription of S 1307/A.D.
1386, which enumerates five distinct appelations for our Padamanandi, includes both Kundakunda and Elācārya. The Nandi Samgha gurvāvali (A.D. 14th Cent.) likewise mentions the elācārya status-cognomen of Kundakundācārya. True, these latter two sources are rather late, but they possibly were so recording on the basis of the then current written or oral
tradition." (Aspects of Jainology, Vol. III , p.192). १९१. आचार्यकुंडकुंदाख्यो वक्रग्रीवो महामतिः।
एलाचार्यो गृध्रपिच्छ इति तन्नाम पञ्चधा॥ ४॥ केचित्तदन्वये चारुमुनयः खनयो गिराम्। जलधाविव रत्नानि बभूवुर्दिव्यतेजसः॥ ५॥ जै. शि. सं./मा. च. / भा.३ / ले.क्र.५८५ ।
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