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________________ अ०१०/प्र०६ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४६३ नहीं है। वह इसलिए कि अपनी उत्पत्ति से पूर्व अपने नामवाले अन्वय का अस्तित्व असम्भव है। दूसरा कारण यह है कि श्रवणबेल्गोल के शक सं० १०८५ (११६३ ई०) के शिलालेख में कुन्दकुन्द को श्रुतकेवली भद्रबाहु के शिष्य चन्द्रगुप्त के अन्वय में उत्पन्न बतलाया गया है।१९२ __इस प्रकार प्रो० ढाकी ने आचार्य कुन्दकुन्द को अर्वाचीन सिद्ध करने के लिए जो आठवीं शताब्दी ई० के एलवाचार्यगुरु को कुन्दकुन्द सिद्ध करने का प्रयास किया है, वह उनके छलवाद का अन्य उदाहरण है। कम्भराज के पूर्वोद्धृत दानपत्र में एलवाचार्यगुरु को स्पष्टतः कुन्दकुन्दान्वय में उद्भूत बतलाया गया है। यह देखते हुए भी कुन्दकुन्दान्वय के आदि पुरुष को कुन्दकुन्द न मानकर 'एलवाचार्यगुरु' को कुन्दकुन्द ठहराने की और इस प्रकार कुन्दकुन्दान्वय को आचार्य कुन्दकुन्द से अनुद्भूत सिद्ध करने की चेष्टा करके प्रो० ढाकी ने लोगों की आँखों में धूल झोंकने का प्रयास किया है। ६. कुन्दकुन्द के किसी वर्धमानगुरु नामक शिष्य का भी उल्लेख अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता। इससे भी एलवाचार्यगुरु का कुन्दकुन्द होना बाधित होता है। ७. कुन्दकुन्द ने भावपाहुड और लिंगपाहुड में ग्राम, भूमि आदि का दान लेकर कृषि-वाणिज्य आदि करनेवाले मुनियों को पासत्थ-कुसील मुनियों की संज्ञा दी है और उन्हें नरकगामी बतलाया है। अतः उनके ही शिष्य ने उनकी ही उपस्थिति में या उनके विद्यमान रहते हुए बदणोगुप्पे ग्राम का दान स्वीकार किया होगा, यह संभव नहीं है। इससे यह सिद्ध होता है कि न तो 'एलवाचार्यगुरु' कुन्दकुन्द का नामान्तर था, न ही वर्धमानगुरु उनके शिष्य थे, और न कुमारनन्दि-भट्टारक उनके गुरु। ८. उक्त दानपत्र में कुमारनन्दि-भट्टारक और उनके शिष्य-प्रशिष्य को कुन्दकुन्दान्वयोद्भूत बतलाया गया है, इससे सिद्ध है कि इस अन्वय के आदिपुरुष कुन्दकुन्द उनसे बहुत पहले हुए थे। ९. उक्त दानपत्र नौवीं शताब्दी (८०८ ई०) के आरंभ का है, किन्तु पाँचवी शताब्दी ई० के पूज्यपाद स्वामी ने, आठवीं शती ई० के पूर्वार्ध में हुए अपराजित सूरि ने तथा इसी शती के उत्तरार्ध में विद्यमान वीरसेन स्वामी ने स्वकृत टीकाओं में कुन्दकुन्द की गाथाओं को उक्तं च कहकर उद्धृत किया है तथा वे गाथाएँ अन्य ग्रन्थों में नहीं मिलतीं। इसके अतिरिक्त वीरसेन स्वामी ने पंचत्थिपाहुड नाम का उल्लेख करके भी पंचास्तिकाय की गाथाएँ धवला में उद्धृत की हैं। प्रथम शताब्दी ई० की भगवती-आराधना और मूलाचार में, द्वितीय शती ई० की तिलोयपण्णत्ती में तथा छठी १९२. लेख का मूलपाठ अध्याय २/ प्रकरण २ / शीर्षक ९ में द्रष्टव्य है। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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