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अ०१०/प्र०६
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४६१ ३. कुन्दकुन्द ने उपर्युक्त दोनों में से किसी को भी अपना गुरु नहीं कहा। उन्होंने तो अपने को श्रुतकेवली भद्रबाहु का परम्पराशिष्य बतलाया है। तथा नौवीं शताब्दी ई० के आचार्य अमृतचन्द्र तो कुन्दकुन्द और उनके गुरु दोनों के विषय में मौन हैं। इस कारण भी कुमारनन्दि-सिद्धान्तदेव को प्रामाणिक रूप से कुन्दकुन्द का गुरु नहीं माना जा सकता।
४. इसी प्रकार कथित दानपत्र में 'एलवाचार्य' नाम नहीं है, अपितु 'एलवाचार्यगुरु' नाम है, किन्तु प्रो० ढाकी ने वंशावली में केवल 'एलवाचार्य' नाम प्रदर्शित किया है। दानपत्र में एलवाचार्य और वर्धमान दोनों के साथ 'गुरु' शब्द जुड़ा हुआ है। यह नाम का ही अंग है, उपाधि नहीं। किन्तु , ढाकी जी ने 'वर्धमानगुरु' यह नाम तो ज्यों का त्यों प्रदर्शित किया है, पर 'एलवाचार्यगुरु' इस नाम से 'गुरु' शब्द हटा दिया है, जिससे वह 'एलाचार्य'-सदृश दिखने लगे। फिर भी एलवाचार्य और एलाचार्य समान नाम नहीं हैं। ढाकी जी ने कहा है कि 'एलवाचार्य' एलाचार्य का कन्नड़ रूप है।८८ किन्तु यह युक्तिसंगत नहीं है। कन्नड़ लेख में भी जहाँ-जहाँ संस्कृत शब्द का प्रयोग किया गया है, वहाँ केवल प्रत्यय ही कन्नड़ भाषा का प्रयुक्त हुआ है, मूलशब्द ज्यों का त्यों ग्रहण किया गया है, उसका कन्नड़ीकरण नहीं किया गया, जैसे 'चन्दणंदिभट्टारगर्गे', 'श्रीविजयजिनालयक्के' आदि (मर्करा-ताम्रपत्रलेख)। तब संस्कृत लेख में संस्कृत शब्द के कन्नड़ीकरण या संस्कृत शब्द के स्थान में उसका कन्नड़ रूप प्रयुक्त किये जाने की कल्पना युक्ति और प्रमाण के विरुद्ध है। अतः ‘एलवाचार्य' शब्द में 'एलव' 'एल' का कन्नड़रूप न होकर कन्नड़ की स्वतंत्र व्यक्तिवाचक संज्ञा है, जैसे 'कोण्डकुन्द।' उसमें 'आचार्य' शब्द जोड़कर 'कोण्डकुन्दाचार्य' के समान 'एलवाचार्य' बना दिया गया है। विजयनगर भी कर्नाटक में ही था। वहाँ दीपस्तम्भ पर उत्कीर्ण संस्कृत शिलालेख (१३८६ ई०) में जो कुन्दकुन्द के पाँच नाम बतलाये गये हैं, उनमें 'एलाचार्य' शब्द का ही प्रयोग है,१८९ 'एलवाचार्य' का नहीं। अतः पूर्वोक्त कम्भराज के दानपत्र में उल्लिखित एलवाचार्य को कुन्दकुन्द का नामान्तर मानकर उन्हें कुमारनन्दिभट्टारक का शिष्य घोषित करना एक अत्यन्त अप्रामाणिक कार्य है।
१८८. “What we find in the charter of A.D. 808, however, is the appelation
'Elavācāraya', seemingly a Kannada (local? Dialectical?) variant of
Elācārya." Aspects of Jainology, Vol.III , p.191.. १८९. श्री मूलसंघेऽजनि नंदिसंघ (स्त) स्मिन् बलात्कारगणोऽतिरम्यः।
तत्रापि सारस्वतनाम्नि गच्छे स्वच्छाशयोऽभूदिह पद्मनंदी॥ ३॥ आचार्य कुंड (कुंदा) ख्यो वक्रग्रीवो महामतिः। एलाचार्यो गृध्रपिच्छ इति तन्नाम पंचधा॥ ४॥ जै.शि.सं. /मा.च. / भा.३/ले.क्र.५८५ ।
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