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________________ ४६० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ जा रहा है— "रणावलोक - श्री कम्भराजः पुन्नाड एडेनाडुविषये वदनोगुप्पे नाम ग्रामः तलवननगरं अधिवसति विजयस्कन्धावारे त्रिंशदुत्तरेष्वतीतेषु शकवर्षेषु कार्त्तिकमास - पौर्णमास्यां रोहिणी नक्षत्रे सोमवारे कोण्डकुन्देयान्वय- सिर्मलगेगूरुगण - कुमारणन्दिभट्टारकस्य शिष्यः एलवाचार्यगुरुः तस्य शिष्यो वर्धमानगुरुः सर्वप्रणिहितः साक्षात् सिद्धान्तनुगमोद्धतः शान्तः सर्वज्ञकल्पोऽयं नयोन्नत - गुणोन्नतः तस्मै तं ग्रामम् अदात् स्वपुत्र - श्रीशंकरगण्ण - विज्ञापनेन श्रीकम्भदेवः श्रीविजयवसतये तलवननगरे प्रतिष्ठितायै । " (जै. शि. सं. / भा. ज्ञा./ भा. ४/ले. क्र. ५४ / शक सं. ७३० / ८०८ ई०) । अ०१० / प्र०६ १. यहाँ हम देखते हैं कि दानपत्र में 'कुमारनन्दि - सिद्धान्तदेव' नाम नहीं है, अपितु 'कुमारणन्दिभट्टारक' नाम है, किन्तु प्रो० ढाकी ने वंशावली में 'कुमारनन्दिसिद्धान्तदेव' नाम प्रदर्शित किया है। केवल इतने से ही बोध हो जाता है कि प्रो० ढाकी ने छलवाद के द्वारा ८ वीं शताब्दी ई० में कुमारनन्दि - सिद्धान्तदेव का अस्तित्व सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। 'भट्टारक' शब्द आदर या विद्वत्तासूचक सामान्य उपाधि है। उससे मनुष्य की शास्त्रगत विशेषज्ञता का बोध नहीं होता । उसकी प्रतीति सिद्धान्तदेव, त्रैविद्यदेव, सिद्धान्तचक्रवर्ती आदि विशिष्ट उपाधियों के प्रयोग से ही होती है । यतः ये उपाधियाँ प्रत्यक्षतः प्रतिष्ठासूचक हैं, अतः जो मुनि या भट्टारक इन उपाधियों से विभूषित थे, उनके नाम के साथ इनका प्रयोग साहित्य और अभिलेखों में अनिवार्यतः हुआ है। ऐसा न किया जाना अविनय का सूचक होता । उपर्युक्त ताम्रपट्टिका - दानपत्र में कुमारनन्दी के साथ 'सिद्धान्तदेव' उपाधि का प्रयोग नहीं है, अपितु 'भट्टारक' उपाधि का प्रयोग है। इससे सिद्ध है कि वे सिद्धान्तदेव उपाधि से विभूषित नहीं थे । अतः वे आचार्य जयसेन द्वारा निर्दिष्ट कुमारनन्दि - सिद्धान्तदेव नहीं हैं । २. १४वीं शताब्दी ई० के शुभचन्द्र ने अपनी नन्दिसंघ की गुर्वावली में १८६ तथा १५वीं शती ई० के श्रुतसागर सूरि ने १८७ कुमारनन्दिसिद्धान्तदेव को नहीं, अपितु जिनचन्द्र को कुन्दकुन्द का गुरु बतलाया है। इन ग्रन्थकारों के बीच अधिक समय का अन्तर नहीं है, फिर भी आचार्य जयसेन कुमारनन्दि - सिद्धान्तदेव को कुन्दकुन्द का गुरु कह रहे हैं और शुभचन्द्र जिनचन्द्र को । अतः कुमारनन्दि - सिद्धान्तदेव का कुन्दकुन्द का गुरु होना विवादास्पद है । १८६. क — देखिए, अष्टम अध्याय के अन्त में 'विस्तृत सन्दर्भ' । ख - “ The Nandi Sargha gurvāvali (A.D. 14th cent.)” Aspects of Jainology, Vol.III, p.192. १८७. “ श्रीपद्मनन्दि- कुन्दकुन्दाचार्य - वक्रग्रीवाचार्यैलाचार्यगृध्रपिच्छाचार्यनाम - पञ्चकविराजितेन श्रीजिनचन्द्रसूरिभट्टारक- पट्टाभरणभूतेन -।" मोक्षप्राभृत / टीकाकर्तुः प्रशस्तिः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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