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________________ ४५४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र.६ दिये गये हैं कि वे गाथाएँ मूलतः कुन्दकुन्द के ही ग्रन्थों की हैं, किसी अन्य ग्रन्थ की नहीं। इन उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि ईसोत्तर प्रथम शती की 'भगवतीआराधना' और 'मूलाचार' से लेकर आठवीं शती ई० की 'विजयोदया' और 'धवला' तक के कर्ता कुन्दकुन्द-साहित्य से न केवल सुपरिचित थे, अपितु उसे प्रामाणिक भी मानते थे। इसीलिए ग्रन्थकारों ने कुन्दकुन्द की गाथाओं को आत्मसात् कर अपने ग्रन्थों का स्तर ऊँचा उठाया है और टीकाकारों ने उनके वचनों को उद्धृत कर अपने प्रतिपादन को प्रामाणिक सिद्ध किया है। अतः प्रो० ढाकी का यह कथन शतप्रतिशत मिथ्या है कि "दसवीं शताब्दी ई० (टीकाकार अमृतचन्द्राचार्य) के पूर्व तक जैन ग्रन्थकारों पर कुन्दकुन्द के साहित्य का कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता, न ही उनके ग्रन्थों में कुन्दकुन्द-साहित्य से गृहीत वास्तविक और असंदिग्ध उद्धरण मिलते हैं,१५८ अतः उनका जन्म दसवीं शताब्दी ई० से सौ-डेढ़ सौ वर्ष पहले ही हुआ होगा।" सर्वार्थसिद्धि, विजयोदया और धवला में कुन्दकुन्द-साहित्य से जो गाथाएँ उद्धृत की गई हैं, उनके कुन्दकुन्दरचित होने की असंदिग्धता इससे सिद्ध है कि वे उक्त टीकाओं में 'उक्तं च' शब्दों का प्रयोगकर उद्धृत की गई हैं तथा वे केवल कुन्दकुन्द-साहित्य में ही मिलती हैं, अन्यत्र नहीं। वीरसेन स्वामी ने तो पंचत्थिपाहुड नाम लेकर पंचास्तिकाय से कई गाथाएँ उद्धृत की हैं, जिससे उनके पंचास्तिकाय से उद्धृत किये जाने में तो कोई बालक भी सन्देह नहीं कर सकता। तथा जो गाथाएँ भगवती-आराधना और मूलाचार में अपनायी गयी हैं, उन्हें कुन्दकुन्दरचित सिद्ध करनेवाले अनेक प्रमाण और युक्तियाँ उपलब्ध हैं। उनका अवलोकन इन ग्रन्थों से सम्बन्धित अध्यायों में किया जा सकता है। प्रो० ढाकी का उपर्युक्त मिथ्या निष्कर्ष उनके अनुसन्धान के स्तर को सूचित करता है, वह यह ज्ञापित करता है कि उनकी शोधपद्धति कितनी उथली, सतही या साम्प्रदायिक पक्षपात से परिपूर्ण है, जिसमें कुन्दकुन्द को प्राचीन सिद्ध करनेवाले उपर्युक्त प्रमाणों पर परदा डाल कर यह मिथ्या अवधारणा उत्पन्न की गई है कि "दसवीं शताब्दी ई० के पूर्व तक किसी भी जैन ग्रन्थकार ने कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से गाथाएँ उद्धृत नहीं की।" १७८.क- “ For nine Centuries his writings and thoughts, did not meet with approval or recognition." (Aspcts of Jainology, Vol. III, p. 189.) ख-"No earlier commentaries on, or genuine and undoubted quotations from this celebrated saint's great works are available.” (Aspcts of Jainology, Vol. III, p. 193.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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